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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
निर्विकार भावसे किसीके घर जाकर यथायोग्य प्रवर्ते तो कुछ दोष है नहीं। उसी प्रकार उपयोगरूप परिणति राग-द्वेषभावसे परद्रव्योंमें प्रवर्तती थी; उसे मना किया कि परद्रव्योंमें प्रवर्तन मत कर, स्वरूपमें मग्न रह। तथा जो उपयोगरूप परिणति वीतरागभावसे परद्रव्यको जानकर यथायोग्य प्रवर्ते तो कुछ दोष है नहीं।
फिर वह कहता है – ऐसा है तो महामुनि परिग्रहादिक चिंतवनका त्याग किसलिये करते हैं ?
समाधान :- जैसे विकारहित स्त्री कुशीलके कारण पराये घरोंका त्याग करती है; उसी प्रकार वीतराग परिणति राग-द्वेषके कारण परद्रव्योंका त्याग करती है। तथा जो व्यभीचारके कारण नहीं हैं ऐसे पराये घरोंमें जानेका त्याग है नहीं; उसी प्रकार जो रागद्वेषके कारण नहीं हैं ऐसे परद्रव्योंको जाननेका त्याग है नहीं।
फिर वह कहता है - जैसे जो स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिकके घर जाती है तो जाये, बिना प्रयोजन जिस-तिसके घर जाना तो योग्य नहीं है। उसी प्रकार परिणतिको प्रयोजन जानकर सात तत्त्वोंका विचार करना, बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नहीं है ?
समाधान :- जैसे स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिक या मित्रादिकके भी घर जाये; उसी प्रकार परिणति तत्त्वों के विशेष जाननेके कारण गुणस्थानादिक व कर्मादिकको भी जाने। तथा यहाँ ऐसा जानना कि जैसे शीलवती स्त्री उद्यमपूर्वक तो विट पुरुषोंके स्थानपर न जायें यदि परवश वहाँ जाना बन जाये और वहाँ कुशील सेवन न करे तो स्त्री शीलवती ही है। उसी प्रकार वीतराग परिणति उपायपूर्वक तो रागादिकके कारण परद्रव्योंमें न लगे; यदि स्वयमेव उनका जानना हो जाये और वहाँ रागादिक न करे तो परिणति शुद्ध ही है। इसलिये मुनियोंको स्त्री आदिके परिषह होनेपर उनको जानते ही नहीं, अपने स्वरूपका ही जानना रहता है - ऐसा मानना मिथ्या है। उनको जानते तो हैं परन्तु रागादिक नहीं करते।
इसप्रकार परद्रव्योंको जानते हुए भी वीतरागभाव होता है। - ऐसा श्रद्धान करना।
तथा वह कहता है – ऐसा है तो शास्त्रमें ऐसा कैसे कहा है कि आत्माका श्रद्धानज्ञान-आचरण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है?
समाधान :- अनादिसे परद्रव्यमें आपरूप श्रद्धान-ज्ञान-आचरण था; उसे छुड़ानेके लिये यह उपदेश है। अपनेहीमें आपरूप श्रद्धान-ज्ञान-आचरण होनेसे परद्रव्यमें राग-द्वेषादि
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