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नौवाँ अधिकार]
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तथा सर्वार्थसिद्धि नामक सूत्रों की टीका है – उसमें तत्त्वादिक पदोंका अर्थ प्रगट लिखा है तथा साथ ही तत्त्व कैसे कहे सो प्रयोजन लिखा है। उसके अनुसार यहाँ कुछ कथन किया है ऐसा जानना। तथा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में भी इसीप्रकार कहा है :
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।। २२ ।। अर्थ :- विपरीताभिनिवेशसे रहित जीव-अजीवादि तत्त्वार्थोंका श्रद्धान सदाकाल करना योग्य है। यह श्रद्धान आत्मा का स्वरूप है, दर्शनमोह उपाधी दूर होनेपर प्रगट होता है, इसलिये आत्मा का स्वभाव है। चतुर्थादि गुणस्थानमें प्रगट होता है, पश्चात् सिद्ध अवस्था में भी सदाकाल इसका सद्भाव रहता है - ऐसा जानना। तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें अव्याप्ति , अतिव्याप्ति और असम्भवदोष का परिहार
यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि तिर्यंचादि तुच्छज्ञानी कितने ही जीव सात तत्त्वोंका नाम भी नहीं जान सकते, उनके भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति शास्त्रमें कही है; इसलिये तुमने तत्त्वार्थश्रद्धानपना सम्यक्त्वका लक्षण कहा उसमें अव्याप्ति दूषण लगता है।
समाधान :- जीव-अजीवादिकके नामादिक जानो या न जानो या अन्यथा जानो, उनका स्वरूप यथार्थ पहिचान कर श्रद्धान करने पर सम्यक्त्व होता है।
वहाँ कोई सामान्यरूप से स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है। कोई विशेषरूप से स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है। इसलिये जो तुच्छज्ञानी तिर्यंचादिक सम्यग्दृष्टि हैं वे जीवादिकका नाम भी नहीं जानते, तथापि उनका सामान्यरूपसे स्वरूप पहिचान कर श्रद्धान करते हैं, इसलिये उनके सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है।
जैसे – कोई तिर्यंच अपना और ओरोंका नामादिक तो नहीं जानता; परन्तु आप ही में अपनत्व मानता है, औरोंको पर मानता है। उसी प्रकार तुच्छज्ञानी जीव-आजीवका नाम नहीं जानता; परन्तु जो ज्ञानादि स्वरूप आत्मा है उसमें तो अपनत्व मानता है, और जो शरीरादि है उनको पर मानता है - ऐसा श्रद्धान उसके होता है; वही जीव-अजीव का श्रद्धान है। तथा जैसे वही तिर्यंच सुखादिकके नामादिक नहीं जानता है, तथापि सुख अवस्थाको पहिचान कर उसके अर्थ आगामी दुःखके कारण को पहिचान कर उसका त्याग करना चाहता है, तथा जो दुःखका कारण बन रहा है उसके अभावका उपाय करता है। उसी प्रकार तुच्छज्ञानी मोक्षादिकका नाम नहीं जानता, तथापि सर्वथा सुखरूप मोक्ष अवस्था का श्रद्धान करता हुआ उसके अर्थ आगामी बन्धका कारण जो रागादिक आस्रव उसके त्यागरूप संवर करना चाहता है, तथा जो संसार दुःख का कारण है उसकी शुद्धभाव से
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