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[मोक्षमार्गप्रकाशक
रखते हैं। तथा वहाँ मुनियोंके भ्रामरी आदि आहार लेनेकी विधि कही है; परन्तु यह आसक्त होकर, दातारके प्राण पीड़ित करके आहारादिका ग्रहण करते हैं। तथा जो गृहस्थधर्ममें भी उचित नहीं हैं व अन्याय, लोकनिंद्य, पापरूप कार्य करते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं।
तथा जिनबिम्ब, शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य उनकी तो अविनय करते हैं और आप उनसे भी महंतता रखकर ऊपर बैठना आदि प्रवृत्तिको धारण करते हैं - इत्यादि अनेक विपरीतताएँ प्रत्यक्ष भासित होती हैं और अपनेको मुनि मानते हैं, मूलगुण आदिके धारी कहलाते हैं। इस प्रकार अपनी महिमा कराते हैं और गृहस्थ भोले उनके द्वारा प्रशंसादिकसे ठगाते हुए धर्मका विचार नहीं करते, उनकी भक्ति में तत्पर होते हैं; परन्तु बड़े पापको बड़ा धर्म मानना इस मिथ्यात्वका फल कैसे अनन्त संसार नहीं होगा ? शास्त्रमें एक जिनवचनको अन्यथा माननेसे महापापी होना कहा है; यहाँ तो जिनवचनकी कुछ बात ही नहीं रखी, तो इसके समान और पाप कौन है ?
शिथिलाचारकी पोषक युक्तियाँ और उनका निराकरण
अब यहाँ, कुयुक्ति द्वारा जो उन कुगुरुओं की स्थापना करते हैं उनका निराकरण करते हैं।
वहाँ वह कहता है - गुरु बिना तो निगुरा कहलायेंगे और वैसे गुरु इस समय दिखते नहीं हैं; इसलिये इन्हींको गुरु मानना ?
उत्तर :- निगुरा तो उसका नाम है जो गुरु मानता ही नहीं। तथा जो गुरुको तो माने, परन्तु इस क्षेत्रमें गुरुका लक्षण न देखकर किसीको गुरु न माने तो इस श्रद्धानसे तो निगुरा होता नहीं हैं। जिस प्रकार नास्तिक तो उसका नाम है जो परमेश्वरको मानता ही नहीं, और जो परमेश्वरको तो माने परन्तु इस क्षेत्रमें परमेश्वरका लक्षण न देखकर किसीको परमेश्वर न माने तो नास्तिक तो होता नहीं है; उसी प्रकार यह जानना।
फिर वह कहता है- जैन शास्त्रोंमें वर्तमानमें केवलीका तो अभाव कहा है, मुनिका तो अभाव नहीं कहा है ?
उत्तर :- ऐसा तो कहा नहीं है कि इन देशोंमें सद्भाव रहेगा ; परन्तु भरतक्षेत्रमें कहते हैं, सो भरतक्षेत्र तो बहुत बड़ा है, कहीं सद्भाव होगा; इसलिये अभाव नहीं कहा है। यदि तुम रहते हो उसी क्षेत्रमें सद्भाव मानोगे, तो जहाँ ऐसे भी गुरु नहीं मिलेंगे वहाँ जाओगे तब किसको गुरु मानोगे? जिस प्रकार - हंसोंका सद्भाव वर्तमान में कहा है, परन्तु हंस दिखायी नहीं देते तो और पक्षियोंको तो हंस माना नहीं जाता; उसी
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