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छठवाँ अधिकार कुदेव , कुगुरु , और कुधर्मका प्रतिषेध
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दोहा - मिथ्या देवादिक भजें, हो है मिथ्याभाव ।
तज तिनकों सांचे भजो, यह हित-हेत-उपाव ।।
अर्थ :- अनादिसे जीवोंके मिथ्यादर्शनादिकभाव पाये जाते हैं. उनकी पष्टताका कारण कुदेव-कुगुरु-कुधर्म सेवन है; उसका त्याग होनेपर मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति होती है; इसलिये इनका निरूपण करते हैं।
कुदेवका निरूपण और उसके श्रद्धानादिका निषेध
वहाँ जो हितके कर्त्ता नहीं हैं और उन्हें भ्रमसे हितका कर्ता जानकर सेवन करें सो कुदेव हैं।
उनका सेवन तीन प्रकारके प्रयोजनसहित करते हैं। कहीं तो मोक्षका प्रयोजन है, कहीं परलोकका प्रयोजन है, और कहीं इसलोकका प्रयोजन है; सो प्रयोजन तो सिद्ध नहीं होते, कुछ विशेष हानि होती है; इसलिये उनका सेवन मिथ्याभाव है। वह बतलाते हैं :
अन्यमतोंमें जिनके सेवनसे मुक्तिका होना कहा है, उन्हें कितने ही जीव मोक्षके अर्थ सेवन करते हैं, परन्तु मोक्ष होता नहीं है। उनका वर्णन पहले अन्यमत अधिकारमें कहा ही है। तथा अन्यमत में कहे देवोंको कितने ही – “परलोकमें सुख होगा दुःख नहीं होगा” – ऐसे प्रयोजनसहित सेवन करते हैं। सो ऐसी सिद्धि तो पुण्य उपजाने और पाप न उपजानेसे होती है; परन्तु आप तो पाप उपजाता है और कहता है ईश्वर हमारा भला करेगा, तो वहाँ अन्याय ठहरा; क्योंकि किसीको पापका फल दे, किसीको न दे ऐसा तो है नहीं। जैसे अपने परिणाम करेगा वैसा ही फल पायेगा; ईश्वर किसीका बुरा-भला करनेवाला नहीं हैं।
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