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[मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा वहाँ से छह महीना आठ समय में छहसौ आठ जीव निकलते हैं, वे निकलकर अन्य पर्यायों को धारण करते हैं। वे पृथवी, जल, अग्नि, पवन, प्रत्येक वनस्पतिरूप एकेन्द्रिय पर्यायोंमें तथा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रियरूप पर्यायों में अथवा नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देवरूप पंचेन्द्रिय पर्यायमें भ्रमण करते हैं। वहाँ कितने ही काल भ्रमण कर फिर निगोद पर्यायोंको प्राप्त करे सो उसका नाम इतरनिगोद है।
__ तथा वहाँ कितने ही काल रहकर वहाँसे निकलकर अन्य पर्यायों में भ्रमण करते हैं। वहाँ परिभ्रमण करने का उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि स्थावरों में असंख्यात कल्पमात्र है, और द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रसों में साधिक दो हजार सागर है, इतरनिगोद में ढाई पुद्गलपरावर्तनमात्र है जो कि अनन्तकाल है। इतरनिगोद से निकल कर कोई स्थावर पर्याय प्राप्त करके फिर निगोद जाते हैं।
इस प्रकार एकेन्द्रिय पर्यायों में उत्कृष्ट परिभ्रमण काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनमात्र है तथा जघन्य तो सर्वत्र एक अंतर्मुहूर्त काल है। इस प्रकार अधिकांश तो एकेन्द्रिय पर्यायों का ही धारण करना है, अन्य पर्यायों की प्राप्ति तो काकतालीयन्यायवत् जानना।
इस प्रकार इस जीवको अनादि से ही कर्मबन्धनरूप रोग हुआ है।
इति कर्मबन्धननिदान वर्णनम्।
___ कर्मबंधनरूप रोगके निमित्तसे होनेवाली जीवकी अवस्था
इस कर्मबंधनरूप रोगके निमित्तसे जीवकी कैसी अवस्था हो रही है सो कहते हैं :
ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्मोदयजन्य अवस्था
प्रथम तो इस जीवका स्वभाव चैतन्य है, वह सबके सामान्य-विशेष स्वरूप को प्रकाशित करनेवाला है। जो उनका स्वरूप हो वैसा अपनेको प्रतिभासित हो, उसी का नाम चैतन्य है। वहाँ सामान्यस्वरूप प्रतिभासित होने का नाम दर्शन है, विशेष स्वरूप प्रतिभासित होने का नाम ज्ञान है। ऐसे स्वभाव द्वारा त्रिकालवर्ती सर्वगुणपर्याय सहित सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष युगपत् बिना किसी सहायता के देखे-जाने ऐसी शक्ति आत्मा में सदा काल है; परन्तु अनादि ही से ज्ञानावरण, दर्शनावरण का सम्बन्ध है - उसके निमित्त से इस शक्ति का व्यक्तपना नहीं होता। उन कर्मों के क्षयोपशम से किंचित् मतिज्ञान-श्रुतज्ञान पाया जाता है और कदाचित् अवधिज्ञान भी पाया जाता है, अचक्षुदर्शन पाया जाता है और कदाचित् चक्षुदर्शन व अवधिदर्शन भी पाया जाता है।
इनकी भी प्रवृत्ति कैसी है सो दिखाते हैं।
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