________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
सातवाँ अधिकार]
[२५३
इसलिये व्रतादिको मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है; परमार्थसे बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है- ऐसा ही श्रद्धान करना।
इसीप्रकार अन्यत्र भी व्यवहारनयका अंगीकार नहीं करना ऐसा जान लेना।
यहाँ प्रश्न है कि व्यवहारनय परको उपदेशमें ही कार्यकारी है या अपना भी प्रयोजन साधता है?
समाधान :- आपभी जब तक निश्चयसे प्ररूपित वस्तुको न पहिचाने तब तक व्यवहारमार्गसे वस्तुका निश्चय करे; इसलिये निचली दशामें अपनेको भी व्यवहारनय कार्यकारी है; परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुको ठीक प्रकार समझे तब तो कार्यकारी हो; परन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहारको भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु इस प्रकार ही है' ऐसा श्रद्धान करे तो उलटा अकार्यकारी हो जाये। यही पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा है :
अबुधस्य बोधनार्थं मुनिश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।। ६ ।। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य ।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ।। ७ ।। अर्थ :- मुनिराज अज्ञानीको समझानेके लिये असत्यार्थ जो व्यवहारनय उसका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहारहीको जानता है, उसे उपदेश ही देना योग्य नहीं है। तथा जैसे कोई सच्चे सिंहको न जाने उसे बिलाव ही सिंह है; उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं जाने उसके व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।
यहाँ कोई निर्विचारी पुरुष ऐसा कहे कि तुम व्यवहारको असत्यार्थ-हेय कहते हो; तो हम व्रत, शील, संयमादि व्यवहारकार्य किसलिये करें? - सबको छोड़ देंगे।
उससे कहते हैं कि कुछ व्रत, शील, संयमादिकका नाम व्यवहार नहीं है; इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है, उसे छोड़दे; और ऐसा श्रद्धान कर कि इनको तो बाह्य सहकारी जानकर उपचारसे मोक्षमार्ग कहा है, यह तो परद्रव्याश्रित हैं; तथा सच्चा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है, वह स्वद्रव्याश्रित है। - इसप्रकार व्यवहारको असत्यार्थ-हेय जानना। व्रतादिकको छोड़नेसे तो व्यवहारका हेयपना होता नहीं है।
फिर हम पूछते हैं कि व्रतादिकको छोड़कर क्या करेगा? यदि हिंसादिरूप प्रवर्तेगा तो वहाँ तो मोक्षमार्गका उपचार भी संम्भव नहीं है; वहाँ प्रवर्तनेसे क्या भला होगा ?
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com