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पाँचवा अधिकार]
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प्रतिमाधारीको थोड़ा परिग्रह, मुनिको बहुत परिग्रह बतलाते हैं सो सम्भवित वचन नहीं है। फिर कहते हैं – यह प्रतिमा तो थोड़े ही काल पालन कर छोड़ देते हैं; परन्तु यह कार्य उत्तम है तो धर्मबुद्धि ऊँची क्रियाको किसलिये छोड़ेगा और नीचा कार्य है तो किसलिये अंगीकार करेगा ? यह सम्भव ही नहीं है।
तथा कुदेव-कुगुरुको नमस्कारादि करनेसे भी श्रावकपना बतलाते हैं। कहते हैंधर्मबुद्धिसे तो नही वन्दते हैं, लौकिक व्यवहार है; परन्तु सिद्धान्तमें तो उनकी प्रशंसा स्तवनको भी सम्यक्त्वका अतिचार कहते हैं और गृहस्थोंका भला मनानेके अर्थ वन्दना करने पर भी कुछ नहीं कहते।
फिर कहोगे - भय, लज्जा, कुतूहलादिसे वन्दते हैं, तो इन्हीं कारणोंसे कुशीलादि सेवन करनेपर भी पाप मत कहो, अंतरंगमें पाप जानना चाहिये। इसप्रकार तो सर्व आचारोंमें विरोध होगा।
देखो, मिथ्यात्व जैसे महापापकी प्रवृत्ति छुड़ानेकी तो मुख्यता नहीं है और पवनकायकी हिंसा ठहराकर खुले मुँह बोलना छुड़ानेकी मुख्यता पायी जाती है; सो यह क्रमभंग उपदेश है। तथा धर्मके अंग अनेक हैं, उनमें एक परजीवकी दयाको मुख्य कहते हैं, उसका भी विवेक नहीं है। जलका छानना, अन्नका शोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना, हिंसादिकरूप व्यापार न करना इत्यादि उसके अंगोंकी तो मुख्यता नहीं है।
मुखपट्टी आदिका निषेध
तथा पट्टीका बाँधना, शौचादिक थोड़ा करना, इत्यादि कार्योंकी मुख्यता करते हैं; परन्तु मैलयुक्त पट्टीके थूकके सम्बन्धसे जीव उत्पन्न होते हैं, उनका तो यत्न नहीं है और पवनकी हिंसाका यत्न बतलाते हैं। सो नासिका द्वारा बहुत पवन निकलती है उसका तो यत्न करते ही नहीं। तथा उनके शास्त्रानुसार बोलनेहीका यत्न किया है तो सर्वदा किसलिये रखते हैं ? बोलें तब यत्न कर लेना चाहिये। यदि कहें - भूल जाते हैं; तो इतनी भी याद नहीं रहती तब अन्य धर्म साधन कैसे होगा? तथा शौचादिक थोड़े करें, सो सम्भवित शौच तो मुनिभी करते हैं; इसलिये गृहस्थको अपने योग्य शौच करना चाहिये। स्त्री संगमादि करके शौच किये बिना सामायिकादि क्रिया करनेसे अविनय, विक्षिप्तता आदि द्वारा पाप उत्पन्न होता है। इस प्रकार जिनकी मुख्यता करते हैं उनका भी ठिकाना नहीं है। और कितने ही दयाके अंग योग्य पालते हैं, हरितकाय आदिका त्याग करते हैं, जल थोड़ा गिराते हैं; इनका हम निषेध नहीं करते।
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