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[मोक्षमार्गप्रकाशक
जिनधर्ममें यह तो आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर फिर छोटा पाप छुड़ाया है; इसलिये इस मिथ्यात्वको सप्तव्यसनादिकसे भी बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिये जो पापके फलसे डरते हैं, अपने आत्माको दुःखसमुद्रमें नहीं डुबाना चाहते, वे जीव इस मिथ्यात्वको अवश्य छोड़ो; निन्दा-प्रशंसादिकके विचारसे शिथिल होना योग्य नहीं है। क्योंकि नीतिमें भी ऐसा कहा है :
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वास्तु मरणं तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। ८४ ।।
(नीतिशतक)
कोई निन्दा करता है तो निन्दा करो, स्तुति करता है तो स्तुति करो, लक्ष्मी आओ व जहाँ-तहाँ जाओ, तथा अभी मरण होओ व युगान्तरमें होओ; परन्तु नीतिमें निपुण पुरुष न्यायमार्गसे एक डग भी चलित नहीं होते।
ऐसा न्याय विचारकर निन्दा-प्रशंसादिकके भयसे , लोभादिकसे, अन्यायरूप मिथ्यात्व प्रवृत्ति करना युक्त नहीं है।
अहो ! देव-गुरु-धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं, इनके आधारसे धर्म है। इनमें शिथिलता रखनेसे अन्य धर्म किस प्रकार होगा? इसलिये बहुत कहनेसे क्या ? सर्वथा प्रकारसे कुदेव-कुगुरु-कुधर्मका त्यागी होना योग्य है।
कुदेवादिकका त्याग न करनेसे मिथ्यात्वभाव बहुत पुष्ट होता है और वर्तमानमें यहाँ इनकी प्रवृत्ति विशेष पायी जाती है; इसलिये इनका निषेधरूप निरूपण किया है। उसे जानकर मिथ्यात्वभाव छोड़कर अपना कल्याण करो।
- इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें कुदेव-कुगुरु-कुधर्म निषेध
वर्णनरूप छठवाँ अधिकार समाप्त हुआ।।६।।
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