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सातवाँ अधिकार]
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अथवा जैसे कोई स्वप्नमें अपनेको राजा मानकर सुखी हो; उसी प्रकार अपनेको भ्रमसे सिद्ध समान शुद्ध मानकर स्वयं ही आनन्दित होता है। अथवा जैसे कहीं रति मानकर सुखी होता है; उसी प्रकार कुछ विचार करनेमें रति मानकर सुखी होता है, उसे अनुभवजनित आनन्द कहता है। तथा जैसे कहीं अरति मानकर उदास होता है; उसी प्रकार व्यापारादिक, पुत्रादिकको खेदका कारण जानकर उनसे उदास रहता है और उसे वैराग्य मानता है – सो ऐसा ज्ञान-वैराग्य तो कषायगर्भित है। वीतरागरूप उदासीन दशामें जो निराकुलता होती है वह सच्चा आनन्द, ज्ञान, वैराग्य ज्ञानी जीवोंके चारित्रमोहकी हीनता होनेपर प्रकट होता है।
तथा वह व्यापारादिक क्लेश छोड़कर यथेष्ट भोजनादि द्वारा सुखी हुआ प्रवर्तता है और वहाँ अपनेको कषायरहित मानता है; परन्तु इसप्रकार आनन्दरूप होनेसे तो रौद्रध्यान होता है। जहाँ सुखसामग्रीको छोड़कर दुःखसामग्रीका संयोग होनेपर संक्लेश न हो, रागद्वेष उत्पन्न न हो; तब निःकषाय भाव होता है।
ऐसी भ्रमरूप उनकी प्रवृत्ति पायी जाती है।
इसप्रकार जो जीव केवल निश्चयाभासके अवलम्बी हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना। जैसे - वेदान्ती व सांख्यमती जीव केवल शुद्धात्माके श्रद्धानी हैं; उसी प्रकार इन्हें भी जानना। क्योंकि श्रद्धानकी समानताके कारण उनका उपदेश इन्हें इष्ट लगता है, इनका उपदेश उन्हें इष्ट लगता है।
तथा उन जीवोंको ऐसा श्रद्धान है कि केवल शुद्धात्माके चितवनसे तो संवर-निर्जरा होते हैं व मुक्तात्माके सुखका अंश वहाँ प्रगट होता है; तथा जीवके गुणस्थानादि अशुद्ध भावोंका और अपने अतिरिक्त अन्य जीव-पुद्गलादिका चितवन करनेसे आस्रव-बन्ध होता है; इसलिये अन्य विचारसे पराङ्मुख रहते है।
सो यह भी सत्यश्रद्धान नहीं है, क्योंकि शुद्ध स्वद्रव्यका चितवन करो या अन्य चितवन करो; यदि वीतरागतासहित भाव हों तो वहाँ संवर-निर्जरा ही है, और जहाँ रागादिरूप भाव हों वहाँ आस्रव-बन्ध ही हैं। यदि परद्रव्यको जाननेसे ही आस्रव-बन्ध होते हों, तो केवली तो समस्त परद्रव्योंको जानते हैं, इसलिये उनके भी आस्रव-बन्ध होंगे।
फिर वह कहता है कि छद्मस्थके तो परद्रव्य चितवनसे आस्रव-बन्ध होता है ? सो भी नहीं है; क्योंकि शुक्लध्यानमें भी मुनियोंको छहों द्रव्योंके द्रव्य-गुण-पर्यायोंका चितवन होनेका निरूपण किया है, और अवधि-मनःपर्यय आदिमें परद्रव्यको जाननेहीकी विशेषता होती है; तथा चौथे गुणस्थान में कोई अपने स्वरूप का चिंतवन करता है उसके
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