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सातवाँ अधिकार]
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समाधान :- उपदेशमें तो कोई उपादेय, कोई हेय, तथा कोई ज्ञेयतत्त्वोंका निरूपण किया जाता है। वहाँ उपादेय-हेय तत्त्वोंकी तो परीक्षा कर लेना, क्योंकि इनमें अन्यथापना होनेसे अपना बुरा होता है। उपादेयको हेय मानलें तो बुरा होगा, हेयको उपादेय मानलें तो बुरा होगा।
फिर वह कहेगा - स्वयं परीक्षा न की और जिनवचनहीसे उपादेयको उपादेय जाने तथा हेयको हेय जाने तो इसमें कैसा बुरा होगा ?
समाधान :- अर्थका भाव भासित हुये बिना वचनका अभिप्राय नहीं पहिचाना जाता। यह तो मानलें कि मैं जिनवचनानुसार मानता हूँ, परन्तु भाव भासित हुए बिना अन्यथापना हो जाये। लोकमें भी नौकरको किसी कार्यके लिये भेजते हैं; वहाँ यदि वह उस कार्यका भाव जानता हो तो कार्यको सुधारेगा; यदि भाव भासित नहीं होगा तो कहीं चूक ही जायेगा। इसलिये भाव भासित होनेके अर्थ हेय-उपादेय तत्त्वोंकी परीक्षा अवश्य करना चाहिये।
फिर वह कहता है – यदि परीक्षा अन्यथा हो जाये तो क्या करें ?
समाधान :- जिनवचन और अपनी परीक्षामें समानता हो, तब तो जाने कि सत्य परीक्षा हुई है। जबतक ऐसा न हो तबतक जैसे कोई हिसाब करता है और उसकी विधि न मिले तबतक अपनी चूकको ढूँढता है; उसी प्रकार यह अपनी परीक्षामें विचार किया करे।
तथा जो ज्ञेयतत्त्व हैं उनकी परीक्षा हो सके तो परीक्षा करे; नहीं तो यह अनुमान करे कि जो हेय-उपादेय तत्त्व ही अन्यथा नहीं कहे, तो ज्ञेयतत्त्वोंको अन्यथा किसलिये कहेंगे? जैसे- कोई प्रयोजनरूप कार्यों में भी झूठ नहीं बोलता, वह अप्रयोजन झूठ क्यों बोलेगा? इसलिये ज्ञेयतत्त्वोंका स्वरूप परीक्षा द्वारा भी अथवा आज्ञासे जाने। यदि उनका यथार्थ भाव भासित न हो तो भी दोष नहीं है।
इसीलिये जैनशास्त्रोंमें जहाँ तत्त्वादिकका निरूपण किया; वहाँ तो हेतु, युक्ति आदि द्वारा जिस प्रकार उसे अनुमानादिसे प्रतीति आये उसीप्रकार कथन किया है। तथा त्रिलोक, गुणस्थान, मार्गणा, पुराणादिकके कथन आज्ञानुसार किये हैं। इसलिये हेयोपादेय तत्त्वोंकी परीक्षा करना योग्य है।
वहाँ जीवादिक द्रव्यों व तत्त्वोंको तथा स्व-परको पहिचानना। तथा त्यागने योग्य मिथ्यात्व-रागादिक और ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शनादिकका स्वरूप पहिचानना। तथा निमित्त-नैमित्तिकादिक जैसे हैं, वैसे पहिचानना। - इत्यादि मोक्षमार्गमें जिनके जाननेसे प्रवृत्ति होती है उन्हें अवश्य जानना। सो इनकी तो परीक्षा करना। सामान्यरूपसे किसी
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