Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 307
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२६३ द्वितीयादि समयोंमें नहीं होते, बढ़ते ही होते हैं; तथा यहाँ अधःकरणवत् जिन जीवोंके करणका पहला समय ही हो, उन अनेक जीवोंके परिणाम परस्पर समान भी होते हैं और अधिक-हीन विशुद्धता सहित भी होते हैं; परन्तु यहाँ इतना विशेष हुआ कि इसकी उत्कृष्टतासे भी द्वितीयादि समयवाले के जघन्य परिणाम भी अनन्तगुनी विशुद्धता सहित ही होते हैं। इसीप्रकार जिन्हें करण प्रारम्भ किये द्वितीयादि समय हुए हों उनके उस समयवालोंके परिणाम तो परस्पर समान या असमान होते हैं; परन्तु ऊपरके समयवालोंके परिणाम उस समय समान सर्वथा नहीं होते, अपूर्व ही होते, इसप्रकार अपूर्वकरण जानना। तथा जिसमें समान समयवर्ती जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं, निवृत्ति अर्थात परस्पर भेद उससे रहित होते हैं; जैसे उस करणके पहले समयमें सर्व जीवोंके परिणाम परस्पर समान ही होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें परस्पर समानता जानना; तथा प्रथमादि समयवालोंसे द्वितीयादि समयवालोंके अनन्तगुनी विशुद्धता सहित होते हैं। इसप्रकार अनिवृत्तिकरण जानना। इस प्रकार ये तीन करण जानना। वहाँ पहले अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त अधःकरण होता है। वहाँ चार आवश्यक होते हैंसमय-समय अनन्तगुनी विशुद्धता होती है; तथा एक (-एक) अन्तर्मुहूर्तसे नवीन बन्धकी स्थिति घटती जाती है, सो स्थितिबन्धापसरण है; तथा प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग समयसमय अनन्तगुना बढ़ता है; और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग-बन्ध समय-समय अनन्तवें भाग होता है- इसप्रकार चार आवश्यक होते हैं। वहाँ पश्चात् अपूर्वकरण होता है। उसका काल अधःकरणके कालके संख्यातवें भाग है। उसमें ये आवश्यक और होते हैं- एक-एक अन्तर्मुहूर्तसे सत्ताभूत पूर्वकर्मकी स्थिति थी, समए समए भिण्णा भावा तम्हा अपुव्वकरणो हु ।। ३६ ।। (लब्धिसार) जम्हा उवरिमभावा हेट्ठिमभावेहिं णत्थि सरिसत्तं । तम्हा बिदियं करणं अपुव्वकरणेत्ति णिद्दिटुं ।। ५१ ।। (लब्धिसार) करणं परिणामों अपुव्वाणि च ताणि करणाणि च अपुव्वकरणाणि, असमानपरिणामा त्ति जं उत्तं होदि।। (धवला १-९-८-४) २ एगसमए वस॒ताणं जीवाणं परिणामेहि ण विज्जदे णियट्टी णिव्वित्ती जत्थ ते अणियट्टीपरिणामा । (धवला १-९-८-४) एक्कम्हि कालसमये संठाणादीहिं जह णिवट्ठति । ण णिवटुंति तहा विय परिणामेहिं मिहो जेहिं ।। ५६ ।। (गोम्मटसार जीवकाण्ड) Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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