________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
१६०]
प्रतिज्ञा भंगसे पापी कहते हैं, उसी प्रकार मुनिधर्मकी प्रतिज्ञा करके कोई किंचित् धर्म न पाले, तो उसे शील - संयमादि होने पर भी पापी कहते हैं । और जैसे एकंत ( एकाशन ) की प्रतिज्ञा करके एकबार भोजन करे तो धर्मात्मा ही है; उसी प्रकार अपना श्रावकपद धारण करके थोड़ा भी धर्म साधन करे तो धर्मात्मा ही है। यहाँ ऊँचा नाम रखकर नीची क्रिया करनेमें पापीपना सम्भव है । यथायोग्य नाम धारण करके धर्मक्रिया करनेसे तो पापीपना होता नहीं है; जितना धर्म साधन करे उतना ही भला है।
यहाँ कोई कहे पंचमकालके अंतपर्यन्त चतुर्विध संघका सद्भाव कहा है। इनको साधु न मानें तो किसको मानें ?
[ मोक्षमार्गप्रकाशक
उत्तर :- जिस प्रकार इसकालमें हंसका सद्भाव कहा है, और गम्यक्षेत्रमें हंस दिखाई नहीं देते, तो औरोंको तो हंस माना नहीं जाता; हंसका लक्षण मिलने पर ही हंस माने जाते हैं। उसी प्रकार इसकालमें साधुका सद्भाव है, और गम्यक्षेत्रमें साधु दिखाई नहीं देते, तो औरोंको तो साधु माना नहीं जाता; साधु का लक्षण मिलने पर ही साधु माने जाते हैं। तथा इनका प्रचार भी थोड़े ही क्षेत्रमें दिखाई देता है, वहाँसे दूरके क्षेत्रमें साधुका सद्भाव कैसे मानें? यदि लक्षण मिलने पर मानें तो यहाँ भी इसी प्रकार मानो । और बिना लक्षण मिले ही मानें तो वहाँ अन्य कुलिंगी हैं उन्हींको साधु मानो । इस प्रकार विपरीतता होती है, इसलिये बनता नहीं है ।
कोई कहे - इस पंचमकालमें इस प्रकार भी साधुपद होता है; तो ऐसा सिद्धान्त वचन बतलाओ। बिना ही सिद्धान्त तुम मानते हो तो पापी होगे। इस प्रकार अनेक युक्ति द्वारा इनके साधुपना बनता नहीं है, और साधुपने बिना साधु मानकर गुरु माननेसे मिथ्यादर्शन होता है; क्योंकि भले साधुको गुरु माननेसे ही सम्यग्दर्शन होता है।
प्रतिमाधारी श्रावक न होनेकी मान्यताका निषेध
तथा श्रावकधर्मकी अन्यथा प्रवृत्ति कराते हैं । त्रसहिंसा एवं स्थूल मृषादिक होनेपर भी जिसका कुछ प्रयोजन नहीं है ऐसा किंचित त्याग कराके उसे देशव्रती हुआ कहते हैं; और वह त्रसघातादिक जिसमें हो ऐसा कार्य करता है; सो देशव्रत गुणस्थानमें तो ग्यारह अविरति कहे हैं, वहाँ त्रसघात किस प्रकार सम्भव है ? तथा ग्यारह प्रतिमाभेद श्रावकके हैं, उनमें दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता ही नहीं और साधु होता है।
पूछे तब कहते हैं प्रतिमाधारी श्रावक इस काल नहीं हो सकते। सो देखो, श्रावकधर्म तो कठिन और मुनिधर्म सुगम ऐसा विरुद्ध कहते हैं। तथा ग्यारहवीं
—
—
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com