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[मोक्षमार्गप्रकाशक
ज्ञान कम हो जाये और बाह्य शक्तिकी हीनतासे अपना दुःख प्रगट भी न कर सके, परन्तु वह महा दुःखी है। उसी प्रकार एकेन्द्रियका ज्ञान तो थोड़ा है और बाह्य शक्तिहीनताके कारण अपना दुःख प्रगट भी नहीं कर सकता, परन्तु महा दु:खी है।
तथा अंतरायके तीव्र उदयसे चाहा हुआ बहुत नहीं होता, इसलिए भी दुःखी ही होते
तथा अघाति कर्मों में विशेषरूपसे पापप्रकृतियोंका उदय है; वहाँ असातावेदनीयका उदय होने पर उसके निमित्तसे महा दुःखी होते हैं। वनस्पति है सो पवनसे टूटती है, शीत-उष्णतासे सूख जाती है, जल न मिलनेसे सूख जाती है, अग्निसे जल जाती है; उसको कोई छेदता है, भेदता है, मसलता है, खाता है, तोड़ता है - इत्यादि अवस्था होती है। उसी प्रकार यथासम्भव पृथ्वी आदिमें अवस्थाएँ होती हैं। उन अवस्थाओंके होनेसे वे महा दुःखी होते हैं।
जिस प्रकार मनुष्यके शरीरमें ऐसी अवस्था होने पर दुःख होता है उसी प्रकार उनके होता है। क्योंकि इनका जानपना स्पर्शन इन्द्रियसे होता है और उनके स्पर्शन इन्द्रिय है ही, उसके द्वारा उन्हें जानकर मोहके वशसे महा व्याकुल होते हैं; परन्तु भागनेकी, लड़नेकी, या पुकारनेकी शक्ति नहीं है, इसलिये अज्ञानी लोग उनके दुःखको नहीं जानते। तथा कदाचित् किंचित् साताका उदय होता है, परन्तु वह बलवान नहीं होता।
तथा आयुकर्मसे इन एकेन्द्रिय जीवोंमें जो अपर्याप्त हैं उनके तो पर्यायकी स्थिति उच्छ्वासके अठारहवें भाग मात्र ही है, और पर्याप्तोंकी अंतर्मुहूर्त आदि कितने ही वर्ष पर्यंत है। वहाँ आयु थोड़ा होनेसे जन्म-मरण होते ही रहते हैं उससे दुःखी हैं।
तथा नामकर्ममें तिर्यंचगति आदि पापप्रकृतियोंका ही उदय विशेषरूपसे पाया जाता है। किसी हीन पुण्यप्रकृतिका उदय हो उसका बलवानपना नहीं होता, इसलिये उनसे भी मोहके वशसे दुःखी होते हैं।
तथा गोत्रकर्ममें नीच गोत्रहीका उदय है इसलिये महंतता नहीं होती, इसलिये भी दुःखी ही हैं।
इसप्रकार एकेन्द्रिय जीव महा दुःखी हैं और इस संसारमें जैसे पाषाण आधार पर तो बहुत काल रहता है, निराधार आकाशमें तो कदाचित् किंचितमात्र काल रहता है; उसीप्रकार जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें बहुत काल रहता है, अन्य पर्यायोंमें तो कदाचित् किंचितमात्र काल रहता है; इसलिये यह जीव संसारमें महा दुःखी है।
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