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पहला अधिकार]
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न हो तो कहीं अन्य प्रयोजनसहित व्याख्यान हो उसका अन्य प्रयोजन प्रगट करके विपरीत प्रवृत्ति कराये। पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसे जिनआज्ञा भंग करनेका भय बहुत हो; क्योंकि ऐसा नहीं हो तो कोई अभिप्राय विचार कर सूत्रविरूद्ध उपदेश देकर जीवोंका बुरा करे। सो ही कहा है :
बहु गुणविज्जाणिलयो असुत्तभासी तहावि मुत्तव्यो । जह वरमणिजुत्तो वि हु विग्घयरो विसहरो लोए ।।
अर्थ :- जो अनेक क्षमादिक गुण तथा व्याकरणादि विद्या का स्थान है, तथापि उत्सूत्रभाषी है तो छोड़नेयोग्य ही है जैसे कि - उत्कृष्ट मणिसंयुक्त होने पर भी सर्प है सो लोकमें विध्न ही का करनेवाला है।
पुनश्च , वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसको शास्त्र वांचकर आजीविका आदि लौकिक-कार्य साधने की इच्छा न हो; क्योंकि यदि आशावान हो तो यथार्थ उपदेश नहीं दे सकता, उसे तो कुछ श्रोताओं के अभिप्राय के अनुसार व्याख्यान करके अपना प्रयोजन साधने का ही साधन रहे। तथा श्रोताओं से वक्ता का पद उच्च है; परन्तु यदि वक्ता लोभी हो तो वक्ता स्वय हीन हो जाये और श्रोता उच्च हो ।
पुनश्च , वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसके तीव्र क्रोध-मान नहीं हो; क्योंकि तीव्र क्रोधी-मानी की निन्दा होगी, श्रोता उससे डरते रहेंगे, तब उससे अपना हित कैसे करेंगे ? पुनश्च , वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो स्वयं ही नाना प्रश्न उठाकर स्वयं ही उत्तर दे; अथवा अन्य जीव अनेक प्रकार से बहुत बार प्रश्न करें तो मिष्ट वचन द्वारा जिस प्रकार उनका संदेह दूर हो उसी प्रकार समाधान करे । यदि स्वयं में उत्तर देने की सामर्थ्य न हो तो ऐसा कहे कि इसका मुझे ज्ञान नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो श्रोताओंका संदेह दूर नहीं होगा, तब कल्याण कैसे होगा? और जिनमत की प्रभावना भी नहीं हो सकती ।
पुनश्च , वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसके अनीतिरूप लोकनिंद्य कार्योंकी प्रवृत्ति न हो; क्योंकि लोकनिंद्य कार्यों से वह हास्य का स्थान हो जाये, तब उसका वचन कौन प्रमाण करे? वह जिन धर्म को लजाये । पुनश्च , वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसका कुल हीन न हो, अंग हीन न हो, स्वर भंग न हो, मिष्ट वचन हो, प्रभुत्व हो; जिससे लोक में मान्य हो - क्योंकि यदि ऐसा न हो तो उसे वक्तापने की महंतता शोभे नहीं- ऐसा वक्ता हो । वक्ता में ये गुण तो आवश्य चाहिये ।
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