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छठवाँ अधिकार ]
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तथा “यैर्जातो न च वर्द्धितो न च न च क्रीतो” इत्यादि काव्य है; उसका अर्थ ऐसा है – जिनसे जन्म नहीं हुआ है, बढ़ा नहीं है, मोल नहीं लिया है, देनदार नहीं हुआ है - इत्यादि कोई प्रकार सम्बन्ध नहीं है; और गृहस्थोंको वृषभवत् हाँकते हैं, जबरदस्ती दानादिक लेते हैं; सो हाय हाय! यह जगत् राजासे रहित है, कोई न्याय पूछनेवाला नहीं
है।
इस प्रकार वहाँ इस श्रद्धानके पोषक काव्य हैं सो उस ग्रन्थसे जानना। यहाँ कोई कहता है - यह तो श्वेताम्बरविरचित् उपदेश है, उसकी साक्षी किसलिये
दी?
उत्तर :- जैसे नीचा पुरूष जिसका निषेध करे, उसका उत्तम पुरूषके तो सहज ही निषेध हुआ; उसी प्रकार जिनके वस्त्रादिक उपकरण कहे वे ही जिसका निषेध करें, तब दिगम्बर धर्ममें तो ऐसी विपरीतताका सहज ही निषेध हुआ।
तथा दिगम्बर ग्रंथोंमें भी इस श्रद्धानके पोषक वचन हैं। वहाँ श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत “ षट्पाहुड़” में ऐसा कहा है :
दसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।२।। (दर्शनपाहुड़)
अर्थ :- सम्यग्दर्शन है मूल जिसका ऐसा जिनवर द्वारा उपदेशित धर्म है; उसे सुनकर हे कर्णसहित पुरूषों ! यह मानो कि – सम्यक्त्वरहित जीव वंदना योग्य नहीं है। जो आप कुगुरु है उस कुगुरु के श्रद्धान सहित सम्यक्त्वी कैसे हो सकता है ? बिना सम्यक्त्व अन्य धर्म भी नहीं होता। धर्मके बिना वंदने योग्य कैसे होगा?
फिर कहते हैं :
जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य। एदे भट्ठ वि भट्ठा सेसं पि जणं विणासंति।।८।। (दर्शनपाहुड़)
जो दर्शनमें भ्रष्ट हैं, ज्ञानमें भ्रष्ट हैं, चारित्र भ्रष्ट हैं; वे जीव भ्रष्टसे भ्रष्ट हैं; और भी जीव जो उनका उपदेश मानते हैं उन जीवोंका नाश करते हैं, बुरा करते हैं।
फिर कहते हैं :
जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।।१२।।
(दर्शनपाहुड़) जो आप तो सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हैं और सम्यक्त्वधारियोंको अपने पैरों पड़वाना चाहते हैं, वे लूले-गूंगे होते हैं अर्थात् स्थावर होते हैं तथा उनके बोधकी प्राप्ति महा दुर्लभ होती
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