Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 364
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३२०] [मोक्षमार्गप्रकाशक निर्जरा करना चाहता है। इसप्रकार आस्रवादिकका उसके श्रद्धान है। इसप्रकार उसके भी सप्ततत्त्व का श्रद्धान पाया जाता है। यदि ऐसा श्रद्धान न हो तो रागादि त्यागकर शुद्धभाव करने की चाह न हो। वही कहते हैं : यदि जीव-अजीव की जाति न जान कर आपापर को न पहिचाने तो परमें रागादिक कैसे न करे ? रागादिकको न पहिचाने तो उनका त्याग कैसे करना चाहे ? वे रागादिक ही आस्रव हैं। रागादिकका फल बुरा न जाने तो किसलिये रागादिक छोड़ना चाहे ? उन रागादिकका फल वही बन्ध है। तथा रागादिरहित परिणाम को पहिचानता है तो उस रूप होना चाहता है। उस रागादिरहित परिणाम ही का नाम संवर है। तथा पूर्व संसार अवस्था के कारण की हानि को पहिचानता है तो उसके अर्थ तपश्चरणादिसे शुद्धभाव करना चाहता है। उस पूर्व संसार अवस्था का कारण कर्म है उसकी हानि वही निर्जरा है। तथा संसार अवस्था के अभाव को न पहिचाने तो संवर-निर्जरा रूप किसलिये प्रवर्ते ? उस संसार अवस्था का अभाव वही मोक्ष है। इसलिये सातों तत्त्वोंका श्रद्धान होने पर ही रागादिक छोड़कर शुद्धभाव होने की इच्छा उत्पन्न होती है। यदि इनमें एक भी तत्त्व का श्रद्धान न हो तो ऐसी चाह उत्पन्न नहीं होती। तथा ऐसी चाह तुच्छज्ञानी तिर्यंचादि सम्यग्दृष्टि के होती ही है; इसलिये उसके सात तत्त्वोंका श्रद्धान पाया जाता है ऐसा निश्चय करना। ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोड़ा होने से विशेषरूप से तत्त्वोंका ज्ञान न हो, तथापि दर्शनमोह के उपशमादिकसे सामान्यरूप से तत्त्वश्रद्धानकी शक्ति प्रगट होती है। इसप्रकार इस लक्षणमें अव्याप्ति दूषण नहीं है। फिर प्रश्न :- जिस काल में सम्यग्दृष्टि विषयकषायोंके कार्यमें प्रवर्तता है उस काल में सात तत्त्वोंका विचार ही नहीं है, वहाँ श्रद्धान कैसे सम्भवित है ? और सम्यक्त्व रहता ही है; इसलिये उस लक्षण में अव्याप्ति दूषण आता है ? ___समाधान :- विचार है वह तो उपयोग के आधीन है; जहाँ उपयोग लगे उसी का विचार होता है। तथा श्रद्धान है सो प्रतीति रूप है। इसलिये अन्य ज्ञेयका विचार होने पर व सोना आदि क्रिया होने पर तत्त्वोंका विचार नहीं है; तथापि उनकी प्रतीति बनी रहती है, नष्ट नहीं होती; इसलिये उसके सम्यक्त्व का सद्भाव है। जैसे - किसी रोगी मनुष्यको ऐसी प्रतीति है कि मैं मनुष्य हूँ, तिर्यंचादि नहीं हूँ, मुझे इस कारण से रोग हुआ है, सो अब कारण मिटाकर रोगको घटा कर निरोग होना। तथा वही मनुष्य अन्य विचारादिरूप प्रवर्तता है, तब उसको ऐसा विचार नहीं होता, परन्तु Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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