________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
दूसरा अधिकार ]
[२३
ऐसा आगम में कहा है तथा युक्ति से भी ऐसा ही संभव है कि - कर्म के निमित्त बिना पहले जीव को रागादिक कहे जायें तो रागादिक जीव का एक स्वभाव हो जाये; क्यों कि परनिमित्त के बिना हो उसी का नाम स्वभाव है।
इसलिये कर्म का संबन्ध अनादि ही मानना।
यहाँ फिर प्रश्न है कि - न्यारे-न्यारे द्रव्य और अनादि से उनका संबन्ध – ऐसा कैसे संभव है ?
समाधान :- जैसे मूल ही से जल-दूधका , सोना-किट्टिकका, तुष-कणका तथा तेल -तिलका सम्बन्ध देखा जाता है, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है; वैसे ही अनादिसे जीव-कर्मका संबन्ध जानना, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है। फिर तुमने कहा – 'कैसे संभव है ? ' अनादिसे जिसप्रकार कई भिन्न द्रव्य हैं, वैसे ही कई मिले द्रव्य हैं; इस प्रकार संभव होनेमें कुछ विरोध तो भासित नहीं होता।
फिर प्रश्न है कि - संबन्ध अथवा संयोग कहना तब संभव है जब पहले भिन्न हों और फिर मिलें। यहाँ अनादिसे मिले जीव-कर्मोंका संबन्ध कैसे कहा है ?
समाधान :- अनादिसे तो मिले थे; परन्तु बादमें भिन्न हुए तब जाना कि भिन्न थे तो भिन्न हुए, इसलिये पहले भी भिन्न ही थे - इस प्रकार अनुमानसे तथा केवलज्ञानसे प्रत्यक्ष भिन्न भासित होते हैं। इससे, उनका बन्धन होने पर भी भिन्नपना पाया जाता है। तथा उस भिन्नताकी अपेक्षा उनका संबन्ध अथवा संयोग कहा है; क्योंकि नये मिले, या मिले ही हों, भिन्न द्रव्योंके मिलापमें ऐसे ही कहना संभव है।
इस प्रकार इन जीव-कर्म का अनादि संबन्ध है।
जीव और कर्मों की भिन्नता
वहाँ जीवद्रव्य तो देखने-जाननेरूप चेतनागुणका धारक है तथा इन्द्रियगम्य न होने योग्य अमूर्त्तिक है, संकोच-विस्तार शक्तिसहित असंख्यातप्रदेशी एकद्रव्य है। तथा कर्म है वह चेतनागुणरहित जड़ है, और मूर्तिक है, अनन्त पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है, इसलिये एकद्रव्य नहीं है। इस प्रकार ये जीव और कर्म हैं - इनका अनादिसंबन्ध है, तो भी जीवका कोई प्रदेश कर्मरूप नहीं होता और कर्मका कोई परमाणु जीवरूप नहीं होता; अपने-अपने लक्षणको धारण किये भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। जैसे सोने-चाँदीका एक स्कंध हो, तथापि पीतादि गुणोंको धारण किए सोना भिन्न रहता है और श्वेतादि गुणोंको धारण किये चाँदी भिन्न रहती है - वैसे भिन्न जानना।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com