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सातवाँ अधिकार ]
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इस प्रकार अनशनादि क्रियाको तपसंज्ञा उपचारसे जानना । इसीसे इसे व्यवहार तप कहा है। व्यवहार और उपचारका एक अर्थ है। तथा ऐसे साधनसे जो वीतरागभावरूप विशुद्वता हो वह सच्चा तप निर्जराका कारण जानना ।
यहाँ दृष्टान्त है जैसे धनको व अन्नको प्राण कहा है। सो धनसे अन्न लाकर, उसका भक्षण करके प्राणोंका पोषण किया जाता है; इसलिये उपचारसे धन और अन्नको प्राण कहा है। कोई इन्द्रियादिक प्राणोंको न जाने और इन्हींको प्राण जानकर संग्रह करे तो मरणको ही प्राप्त होगा । उसी प्रकार अनशनादिको तथा प्रायश्चित्तादिको तप कहा है, क्योंकि अनशनादि साधनसे प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्तन करके वीतरागभावरूप सत्य तपका पोषण किया जाता है; इसलिये उपचारसे अनशनादिको तथा प्रायश्चित्तादिको तप कहा है। कोई वीतरागभावरूप तपको न जाने और इन्हींको तप जानकर संग्रह करे तो संसारही में भ्रमण करेगा।
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बहुत क्या, इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है, अन्य नाना विशेष बाह्यसाधनकी अपेक्षा उपचारसे किये हैं उनको व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना । इस रहस्यको नहीं जानता इसलिये उसके निर्जराका भी सच्चा श्रद्धान नहीं है।
मोक्षतत्त्वका अन्यथारूप
तथा सिद्ध होना उसे मोक्ष मानता है । वहाँ जन्म-मरण - रोग - क्लेशादि दुःख दूर हुए अनन्तज्ञान द्वारा लोकालोकका जानना हुआ, त्रिलोकपूज्यपना हुआ, इत्यादि रूपसे उसकी महिमा जानता है। सो सर्व जीवोंके दुःख दूर करनेकी, ज्ञेय जाननेकी, तथा पूज्य होनेकी इच्छा है। यदि इन्हींके अर्थ मोक्षकी इच्छा की तो इसके अन्य जीवोंके श्रद्धानसे क्या विशेषता हुई ?
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तथा इसके ऐसा भी अभिप्राय है कि स्वर्गमें सुख है उससे अनन्तगुना सुख मोक्षमें है। सो इस गुणाकारमें वह स्वर्ग - मोक्षसुखकी एक जाति जानता है वहाँ स्वर्गमें तो विषयादिक सामग्रीजनित सुख होता है, उसकी जाती इसे भासित होती है; परन्तु मोक्षमें विषयादिक सामग्री है नहीं, सो वहाँके सुखकी जाति इसे भासित तो नहीं होती; परन्तु महान पुरुष स्वर्गसे भी मोक्षको उत्तम कहते हैं इसलिये यह भी उत्तम ही मानता है । जैसे
कोई गायनका स्वरूप न पहिचाने; परन्तु सभाके सर्व लोग सराहना करते हैं इसलिये आपभी सराहना करता है । उसी प्रकार यह मोक्षको उत्तम मानता है ।
यहाँ वह कहता है शास्त्रमें भी तो इन्द्रादिकसे अनन्तगुना सुख सिद्धोंके प्ररूपित
किया है ?
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