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अभिप्राय सहित करता है। और भेदविज्ञान करता है तो तत्त्वविचारादिके अभिप्राय सहित करता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी परस्पर सापेक्षपना है; इसलिये सम्यग्दृष्टिके श्रद्धान में चारों ही लक्षणोंका अंगीकार है
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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जिसके मिथ्यात्वका उदय है उसके विपरीताभिनिवेश पाया जाता है; उसके यह लक्षण आभासमात्र होते हैं, सच्चे नहीं होते। जिनमतके जीवादिक तत्त्वोंको मानता है, अन्यको नहीं मानता, उनके नाम - भेदादिकको सीखता है ऐसा तत्त्वश्रद्धान होता है; परन्तु उनके यथार्थ भावका श्रद्धान नहीं होता । तथा आपापर के भिन्नपने की बातें करे, चिंतवन करे; परन्तु जैसे पर्यायमें अहंबुद्धि है और वस्त्रादिकमें परबुद्धि है, वैसे आत्मामें अहंबुद्धि और शरीरादिमें परबुद्धि नहीं होती । तथा आत्माका जिनवचनानुसार चिंतवन करे; परन्तु प्रतीतिरूप आपका आपरूप श्रद्धान नहीं करता है। तथा अरहन्तदेवादिकके सिवा अन्य कुदेवादिकको नहीं मानता; परन्तु उसके स्वरूपको यथार्थ पहिचानकर श्रद्धान नहीं करता इसप्रकार यह लक्षणाभास मिथ्यादृष्टिके होते हैं। इनमें कोई होता है, कोई नहीं होता; वहाँ इनके भिन्नपना भी सम्भवित है।
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तथा इन लक्षणाभासोंमें इतना विशेष है कि पहले तो देवादिकका श्रद्धान हो, फिर तत्त्वोंका विचार हो, फिर आपापरका चिंतवन करे, फिर केवल आत्मा का चिंतवन करे इस अनुक्रमसे साधन करे तो परम्परा सच्चे मोक्षमार्गको पाकर कोई जीव सिद्धपद को भी प्राप्त कर ले। तथा इस अनुक्रमका उल्लंघन करके - जिसके देवादिककी मान्यता का तो कुछ ठिकाना नहीं है और बुद्धिकी तीव्रता से तत्त्वविचारादिमें प्रवर्तता है, इसलिये अपने को ज्ञानी जानता है; अथवा तत्त्वविचारमें भी उपयोग नहीं लगाता, आपापर का भेदविज्ञानी हुआ रहता है; अथवा आपापर का भी ठीक नहीं करता, और अपने को आत्मज्ञानी मानता है। सो यह सब चतुराई की बातें हैं, मानादिक कषायके साधन हैं, कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं। इसलिये जो जीव अपना भला करना चाहे, उसे जबतक सच्चे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न हो, तब तक इनको भी अनुक्रम ही से अंगीकार करना ।
वही कहते हैं :- पहले तो आज्ञादिसे व किसी परीक्षा से कुदेवादिककी मान्यता छोड़कर अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान करना; क्योंकि यह श्रद्धान होनेपर गृहीतमिथ्यात्वका तो अभाव होता है, तथा मोक्षमार्गके विघ्न करने वाले कुदेवादिकका निमित्त दूर होता है, मोक्षमार्गका सहायक अरहन्तदेवादिकका निमित्त मिलता है; इसलिये पहले देवादिकका श्रद्धान करना। फिर जिनमतमें कहे जीवादिक तत्त्वोंका विचार करना, नाम-लक्षणादि सीखना; क्योंकि इस अभ्याससे तत्त्वार्थश्रद्धान की प्राप्ति होती है । फिर आपापरका भिन्नपना जैसे भासित हो वैसा विचार करता रहे; क्योंकि इस अभ्याससे भेदविज्ञान होता है ।
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