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परमार्थवचनिका ]
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परन्तु विशेष इतना कि किसी जाती का ज्ञान ऐसा नहीं होता कि परसत्तावलंबनशीली होकर मोक्षमार्ग साक्षात् कहे। क्यों ? अवस्था - प्रमाण परसत्तावलंबक है। (परन्तु) परसत्तावलंबी ज्ञान को परमार्थता नहीं कहता ।
जो ज्ञान हो वह स्वसत्तावलंबनशील होता है, उसका नाम ज्ञान। उस ज्ञान को सहकारभूत निमित्तरूप नानाप्रकार के औदयिक भाव होते हैं, उन औदयिकभावोंका ज्ञाता तमाशगीर है, न कर्त्ता, न भोक्ता, न अवलम्बी है; इसलिये कोई ऐसा कहे कि इसप्रकार के औदयिकभाव सर्वथा होतो फलाना गुणस्थान कहा जाये तो झूठ है। उन्होंने द्रव्यका स्वरूप सर्वथा प्रकार नहीं जाना है।
क्यों ? इसलिये कि और गुणस्थानोंकी कौन बात चलाये ? केवली के भी औदयिकभावोंकी नानाप्रकारता जानना । केवलीके भी औदयिकभाव एक-से नहीं होते। किसी केवली को दण्ड - कपाटरूप क्रिया का उदय होता है, किसी केवली को नहीं होता। जब केवलीमें भी उदय की नाना प्रकारता है तब और गुणस्थान की कौन बात चलाये ?
इसलिये औदयिकभावोंके भरोसे ज्ञान नहीं है, ज्ञान स्वशक्तिप्रमाण है। स्व-पर प्रकाशक ज्ञान की शक्ति, ज्ञायकप्रमाण ज्ञान, सवरूपाचरणरूप चारित्र यथानुभव प्रमाण यह ज्ञाता का सामर्थ्यपना है।
इस बातोंका विवरण कहाँ तक लिखें, कहाँ तक कहें ? वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत है, इसलिये यह विचार बहुत क्या लिखें ? जो ज्ञाता होगा वह थोड़ा ही लिखा बहुत करके समझेगा, जो अज्ञानी होगा वह यह चिट्ठी सुनेगा सही, परन्तु समझेगा नहीं । यह वचनिका ज्यों कि त्यों सुमतिप्रमाण केवलीवचनानुसारी है। जो इसे सुनेगा, समझेगा, श्रद्धेगा; उसे कल्याणकारी है - भाग्यप्रमाण ।
इति परमार्थवचनिका ।
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