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[मोक्षमार्गप्रकाशक
जाये तो विशेष बुद्धिमान हों, वे उसे सँवार कर शुद्ध करें – ऐसी मेरी प्रार्थना है।
इसप्रकार शास्त्र करने का निश्चय किया है।
अब यहाँ, कैसे शास्त्र वांचने - सुनने योग्य हैं तथा उन शास्त्रों के वक्ता-श्रोता कैसे होने चाहिये उसका वर्णन करते हैं।
वाँचने-सुनने योग्य शास्त्र
जो शास्त्र मोक्षमार्गका प्रकाश करें वही शास्त्र वांचने-सुनने योग्य हैं; क्योंकि जीव संसार में नाना दुःखों से पीड़ित है। यदि शास्त्ररूपी दीपक द्वारा मोक्षमार्गको प्राप्त कर लें तो उस मार्ग में स्वयं गमन कर उन दुःखों से मुक्त हों। सो मोक्षमार्ग एक वीतराग भाव है; इसलिये जिनशास्त्रों में किसी प्रकार राग-द्वेष-मोहभावोंका निषेध करके वीतराग भाव का प्रयोजन प्रगट किया हो उन्हीं शास्त्रों का वाँचना-सुनना उचित है। तथा जिन शास्त्रों में श्रृंगार-भोग-कुतूहलादिकका पोषण करके रागभावका; हिंसा-युद्धादिकका पोषण करके द्वेषभा का; और अतत्त्वश्रद्धानका पोषण करके मोहभाव का प्रयोजन प्रगट किया हो वे शास्त्र नहीं शस्त्र हैं; क्यों कि जिन राग-द्वेष-मोह भावों से जीव अनादि से दुःखी हुआ उनकी वासना जीव को बिना सिखलाये ही थी और इन शास्त्रों द्वारा उन्हीं का पोषण किया, भला होने की क्या शिक्षा दी? जीव का स्वभाव घात ही किया। इसलिये ऐसे शास्त्रों का वाचना-सुनना उचित नहीं है।
यहाँ वाचना -सुनना जिस प्रकार कहा; उस प्रकार जोड़ना, सीखना, सिखाना, विचारना, लिखाना आदि कार्य भी उपलक्षण से जान लेना।
इसप्रकार जो साक्षात् अथवा परम्परा से वीतरागभाव का पोषण करे - ऐसे शास्त्र ही का अभ्यास करने योग्य है।
वक्ता का स्वरूप
अब इनके वक्ता का स्वरूप कहते हैं :- प्रथम तो वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो जैन श्रद्धान में दृढ़ हो; क्योंकि यदि स्वयं अश्रद्धानी हो तो औरों को श्रद्धानी कैसे करे ? श्रोता तो स्वयं ही से हीनबुद्धि के धारक हैं, उन्हें किसी युक्ति द्वारा श्रद्धानी कैसे करे ? और श्रद्धान ही सर्व धर्मका मूल है। पुनश्च , वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसे विद्याभ्यास करने से शास्त्र वांचने योग्य बुद्धि प्रगट हुई हो; क्योंकि ऐसी शक्ति के बिना वक्तापने का अधिकारी कैसे हो ? पुनश्च , वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो सम्यग्ज्ञान द्वारा सर्व प्रकार के व्यवहारनिश्चयादिरूप व्याख्यानका अभिप्राय पहिचानता हो; क्योंकि यदि ऐसा
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