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[मोक्षमार्गप्रकाशक
सम्यक्चारित्रका अन्यथारूप
तथा इनके सम्यक्चारित्रके अर्थ कैसी प्रवृत्ति है सो कहते हैं :
बाह्यक्रिया पर तो इनकी दृष्टि है और परिणाम सुधरने-बिगड़नेका विचार नहीं है। और यदि परिणामोंका भी विचार हो तो जैसे अपने परिणाम होते दिखाई दें उन्हीं पर दृष्टि रहती है, परन्तु उन परिणामोंकी परम्पराका विचार करने पर अभिप्रायमें जो वासना है उसका विचार नहीं करते। और फल लगता है सो अभिप्रायमें जो वासना है उसका लगता है । इसका विशेष व्याख्यान आगे करेंगे। वहाँ स्वरूप भलीभाँति भासित होगा।
ऐसी पहिचानके बिना बाह्य आचरण का ही उद्यम है।
वहाँ कितने ही जीव तो कुलक्रमसे अथवा देखादेखी या क्रोध, मान, माया, लोभादिकसे आचरण करते हैं; उनके तो धर्मबुद्धि ही नहीं है, सम्यक्चारित्र कहाँसे हो ? उन जीवोंमें कोई तो भोले हैं व कोई कषायी हैं; सो अज्ञानभाव व कषायी होनेपर सम्यक्चारित्र नहीं होता।
तथा कितने ही जीव ऐसा मानता हैं कि जाननेमें क्या है, कुछ करेंगे तो फल लगेगा। ऐसा विचारकर व्रत-तप आदि क्रियाहीके उद्यमी रहते हैं और तत्त्वज्ञानका उपाय नहीं करते। सो तत्त्वज्ञानके बिना महाव्रतादिका आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पाता है, और तत्त्वज्ञान होनेपर कुछ भी व्रतादिक नहीं हैं तथापि असंयतसम्यग्दृष्टि नाम पाता है। इसलिये पहले तत्त्वज्ञानका उपाय करना, पश्चात् कषाय घटानेके लिये बाह्यसाधन करना। यही योगीन्द्रदेवकृत श्रावकाचारमें कहा है :
“दसणभूमिहं बाहिरा, जिय वयरुंक्ख ण हुंति।" अर्थ :- इस सम्यग्दर्शन भूमिका बिना हे जीव! व्रतरूपी वृक्ष नहीं होते। अर्थात जिन जीवोंके तत्त्वज्ञान नहीं है वे यथार्थ आचरण नहीं आचरते।
वही विशेष बतलाते हैं :
कितने ही जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धारण कर बैठते हैं; परन्तु अन्तरंगमें विषयकषाय वासना मिटी नहीं है, इसलिये जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते है। वहाँ उस प्रतिज्ञासे परिणाम दुःखी होते हैं। जैसे- कोई बहुत उपवास कर बैठता है और पश्चात् पीड़ासे दुःखी हुआ रोगीकी भाँति काल गँवाता है, धर्म साधन नहीं करता; तो प्रथम ही सधती जाने उतनी ही प्रतिज्ञा क्यों न ले? दुःखी होनेमें आर्तध्यान हो, उसका फल अच्छा कैसे लगेगा ? अथवा उस प्रतिज्ञाका दुःख नहीं सहा जाता तब उसके बदले विषय-पोषणके
१ सावधम्म, दोहा ५७
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