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आठवाँ अधिकार]
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समाधान :- जैसे रोग तो शीतांग भी है और ज्वर भी है; परन्तु किसीका शीतांग से मरण होता जाने, वहाँ वैद्य उसको ज्वर होने का उपाय करता है, और ज्वर होने पश्चात् उसके जीने की आशा हो तब बादमें ज्वर को भी मिटाने का उपाय करता है। उसी प्रकार कषाय तो सभी हेय हैं; परन्तु किन्हीं जीवोंकी कषायोंसे पापकार्य होता जाने, वहाँ श्रीगुरु उनको पुण्य कार्यके कारणभूत कषाय होनेका उपाय करते हैं, पश्चात् उसके सच्ची धर्मबुद्धि हुई जानें तब बादमें वह कषाय मिटानेका उपाय करते हैं। ऐसा प्रयोजन जानना।
तथा चरणानुयोगमें जैसे जीव पाप छोड़कर धर्ममें लगें वैसे अनेक युक्तियों द्वारा वर्णन करते हैं। वहाँ लौकिक दृष्टान्त, युक्ति, उदाहरण, न्यायवृत्तिके द्वारा समझाते हैं व कहीं अन्यमतके भी उदाहरणादि कहते हैं। जैसे - 'सूक्तमुक्तावली' में लक्ष्मीको कमलवासिनी कही व समुद्र में विष और लक्ष्मी उत्पन्न हुए उस अपेक्षा उसे विष की भगिनी कही है। इसी प्रकार अन्यत्र कहते हैं।
वहाँ कितने ही उदाहरणादि झूठे भी हैं; परन्तु सच्चे प्रयोजन का पोषण करते हैं, इसलिये दोष नहीं है।
यहाँ कोई कहे कि झूठका तो दोष लगता है ?
उसका उत्तर :- यदि झूठ भी है और सच्चे प्रयोजनका पोषण करे तो उसे झूठ नहीं कहते। तथा सच भी है और झूठे प्रयोजन का पोषण करे तो वह झूठ ही है।
अलंकार-युक्ति-नामादिकमें वचन अपेक्षा झूठ-सच नहीं है, प्रयोजन की अपेक्षा झूठ-सच है। जैसे - तुच्छ शोभासहित नगरी को इन्द्रपुरी के समान कहते हैं सो झूठ है, परन्तु शोभाके प्रयोजन का पोषण करता हैं, इसलिये झूठ नहीं है। तथा 'इस नगरी में छत्र को ही दंड़ है अन्यत्र नहीं है'- ऐसा कहा सो झूठ है; अन्यत्र भी दण्ड देना पाया जाता है, परन्तु वहाँ अन्यायवान थोड़े हैं और न्यायवान को दण्ड नहीं देते, ऐसे प्रयोजन का पोषण करता है, इसलिये झूठ नहीं है। तथा बृहस्पतिका नाम 'सुरगुरु' लिखा है व मंगलका नाम 'कुज' लिखा है सो ऐसे नाम अन्यमत अपेक्षा है। - इनका अक्षरार्थ है सो झूठा है; परन्तु वह नाम उस पदार्थका अर्थ प्रगट करता है, इसलिये झूठ नहीं है।
इसप्रकार अन्यमतादि के उदाहरणादि देते हैं सो झठ है; परन्त उदाहरणादिकका तो श्रद्धान कराना है नहीं, श्रद्धान तो प्रयोजन का कराना है, और प्रयोजन सच्चा है, इसलिये दोष नहीं है।
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