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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
गुण- पर्यायादिकका व प्रमाण - नयादिकका व अन्यमतके कहे तत्त्वादिकके निराकरणका कथन किया, सो उनके अभ्याससे विकल्प विशेष होते हैं और वे बहुत प्रयास करने पर जाननेमें आते हैं; इसलिये उनका अभ्यास नहीं करना ।
उनसे कहते हैं सामान्य जाननेसे विशेष जानना बलवान है। ज्यों-ज्यों विशेष जानता है त्यों-त्यों वस्तुस्वभाव निर्मल भासित होता है, श्रद्धान दृढ़ होता है, रागादि घटते हैं; इसलिये उस अभ्यासमें प्रवर्त्तना योग्य है।
इसप्रकार चारों अनुयोगों में दोष - कल्पना करके अभ्याससे पराङ्मुख होना योग्य नहीं है।
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व्याकरण-न्यायादि शास्त्रोंकी उपयोगिता
तथा व्याकरण न्यायादिक शास्त्र हैं, उनका भी थोड़ा बहुत अभ्यास करना; क्योंकि उनके ज्ञान बिना बड़े शास्त्रोंका अर्थ भासित नहीं होता । तथा वस्तु का स्वरूप भी इनकी पद्धति जाननेपर जैसा भासित होता है वैसा भाषादिक द्वारा भासित नहीं होता; इसलिये परम्परा कार्यकारी जानकर इनका भी अभ्यास करना; परन्तु इन्हीं में फंस नहीं जाना। इनका कुछ अभ्यास करके प्रयोजनभूतशास्त्रोंके अभ्यास में प्रवर्त्तना ।
तथा वैद्यकादि शास्त्र हैं उनसे मोक्षमार्गमें कुछ प्रयोजन ही नहीं है; इसलिये किसी व्यवहारधर्मके अभिप्रायसे बिना खेदके इनका अभ्यास हो जाये तो उपकारादि करना, पापरूप नहीं प्रवर्त्तना; और इनका अभ्यास न हो तो मत होओ, कुछ बिगाड़ नहीं है।
इसप्रकार जिनमतके शास्त्र निर्दोष जानकर उनका उपदेश मानना।
अनुयोगोंमें दिखाई देने वाले परस्पर विरोधका निराकरण
अब, शास्त्रोंमें अपेक्षादिकको न जानने से परस्पर विरोध भासित होता है, उसका निराकरण करते हैं।
प्रथमादि अनुयोगोंकी आम्नायके अनुसार यहाँ जिस प्रकार कथन किया हो, वहाँ उसप्रकार जान लेना; अन्य अनुयोगके कथनको अन्य अनुयोगके कथनसे अन्यथा जानकर सन्देह नहीं करना । जैसे कहीं तो निर्मल सम्यग्दृष्टि के ही शंका, कांक्षा, विचिकित्साका अभाव कहा; कहीं भयका आठवें गुणस्थान पर्यंत, लोभका दसवें पर्यंत, जुगुप्साका आठवें पर्यंत उदय कहा; वहाँ विरुद्ध नहीं जानना । सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानपूर्वक तीव्र शंकादिकका अभाव हुआ है अथवा मुख्यतः सम्यग्दृष्टि शंकादि नहीं करता, उस अपेक्षा चरणानुयोगमें सम्यग्दृष्टिके शंकादिकका अभाव कहा है; परन्तु सूक्ष्मशक्ति की अपेक्षा भयादिकका उदय अष्टमादि गुणस्थान पर्यंत पाया जाता है, इसलिये करणानुयोगमें वहाँ तक उनका सद्भाव कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना ।
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