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तीसरा अधिकार ]
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विकलत्रय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके दु:ख
तथा जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायोंको धारण करे वहाँ भी एकेन्द्रियवत् दुःख जानना। विशेष इतना कि - यहाँ क्रमसे एक-एक इन्द्रियजनित ज्ञान-दर्शनकी तथा कुछ शक्तिकी अधिकता हुई है और बोलने-चालनेकी शक्ति हुई है। वहाँ भी जो अपर्याप्त हैं तथा पर्याप्त भी हीनशक्तिके धारक हैं; छोटे जीव हैं, उनकी शक्ति प्रगट नहीं होती। तथा कितने ही पर्याप्त बहुत शक्तिके धारक बड़े जीव हैं उनकी शक्ति प्रगट होती है; इसलिये वे जीव विषयोंका उपाय करते हैं, दुःख दूर होनेका उपाय करते हैं। क्रोधादिकसे काटना, मारना, लड़ना, छल करना, अन्नादिका संग्रह करना, भागना इत्यादि कार्य करते हैं; दुःखसे तड़फड़ाना, पुकारना इत्यादि क्रिया करते हैं; इसलिये उनका दुःख कुछ प्रगट भी होता है। इस प्रकार लट, कीड़ी आदि जीवोंको शीत, उष्ण, छेदन, भेदनादिकसे तथा भूख-प्यास आदिसे परम दुःखी देखते हैं। जो प्रत्यक्ष दिखायी देता है उसका विचार कर लेना। यहाँ विशेष क्या लिखें ?
इस प्रकार द्वीन्द्रियादिक जीवोंको भी महा दुःखी ही जानना।
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके दुःख
नरकगतिके दुःख
तथा संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें नारकी जीव हैं वे तो सर्व प्रकारसे बहुत दुःखी हैं। उनमें ज्ञानादिकी शक्ति कुछ है, परन्तु विषयोंकी इच्छा बहुत है और इष्ट विषयोंकी सामग्री किंचित् भी नहीं मिलती, इसलिए उस शक्तिके होनेसे भी बहुत दु:खी हैं। उनके क्रोधादि कषायकी अति तीव्रता पायी जाती है; क्योंकि उनके कृष्णादि अशुभ लेश्या ही हैं।
वहाँ क्रोध-मानसे परस्पर दुःख देनेका कार्य निरन्तर पाया जाता है। यदि परस्पर मित्रता करें तो दुःख मिट जाये। और अन्यको दुःख देनेसे उनका कुछ कार्य भी नहीं होता, परन्तु क्रोध-मानकी अति तीव्रता पायी जाती है उससे परस्पर दुःख देनेकी ही बुद्धि रहती है। विक्रिया द्वारा अन्यको दुःखदायक शरीरके अंग बनाते हैं तथा शस्त्रादि बनाते हैं। उनके द्वारा दूसरोंको स्वयं पीड़ा देते हैं और स्वयंको कोई और पीड़ा देता है। कभी कषाय उपशान्त नहीं होती। तथा उनमें माया-लोभकी भी अति तीव्रता है, परन्तु कोई इष्ट सामग्री वहाँ दिखायी नहीं देती इसलिये उन कषायोंका कार्य प्रगट नहीं कर सकते; उनसे अंतरंगमें महा दु:खी हैं। तथा कदाचित् किंचित् कोई प्रयोजन पाकर उनका भी कार्य होता है।
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