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पाँचवा अधिकार]
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अन्यमतके ग्रन्थोद्धरणोंसे जैनधर्म की समीचीनता और प्राचीनता
अब अनयमतोंके शास्त्रोंकी ही साक्षीसे जिनमतकी समीचीनता व प्राचीनता प्रगट करते हैं :
"बड़ा योगवासिष्ठ” छत्तीस हजार श्लोक प्रमाण है, उसके प्रथम वैराग्य प्रकरणमें अहंकारनिषेध अध्यायमें वसिष्ठ और रामके संवादमें ऐसा कहा है :
रामोवाच-नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः।
शांतिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा' ।।१।। इसमें रामजी ने जिन समान होनेकी इच्छाकी, इसलिये रामजीसे जिनदेवका उत्तमपना प्रगट हुआ और प्राचीनपना प्रगट हुआ।
तथा “ दक्षिणामूर्ति-सहस्त्रनाम” में कहा है :
शिवोवाच - जैनमार्गरतो जैन जिन क्रोधो जितामयः। ___ यहाँ भगवत् का नाम जैनमार्गमें रत और जैन कहा, सो इसमें जैनमार्गकी प्रधानता व प्राचीनता प्रगट हुई।
तथा “वैशम्पायनसहस्त्रनाम” में कहा है :
कालनेमिर्महावीरः शूरः शौरिजिनेश्वरः । यहाँ भगवानका नाम जिनेश्वर कहा, इसलिये जिनेश्वर भगवान हैं। तथा दुर्वासाऋषिकृत “महिम्निस्तोत्र" में ऐसा कहा है :
तत्तदर्शनमुख्यशक्तिरिति च त्वं ब्रह्मकर्मेश्वरी ।
कर्तार्हन् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवत्स्वं गुरु: ।। १ ।। यहाँ-“अरहंत तुम हो” इस प्रकार भगवंत की स्तुति की, इसलिये अरहंतके भगवानपना प्रगट हुआ। तथा “ हनुमन्नाटक" में ऐसा कहा है :
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः।
' अर्थात् मैं राम नहीं हूँ, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावों व पदार्थों में मेरा मन नहीं है। मैं तो जिनदेवके समान अपनी आत्मा में ही शान्ति स्थापना करना चाहता हूँ।
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