Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 387
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates रहस्यपूर्ण चिट्ठी] [३४३ प्रकार निजस्वरूपमें अहंबुद्धि धरता है। चिदानन्द हूँ, शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादि विचार होनेपर सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो आता है; तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छूट जाये, केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्व परिणाम उस रूप में एकाग्र होकर प्रवर्त्तते हैं; दर्शन-ज्ञानादिकका व नय-प्रमाणादिकका भी विचार विलय हो जाता है। चैतन्यस्वरूप जो सविकल्पसे निश्चय किया था, उसहीमें व्याप्य-व्यापकरूप होकर इस प्रकार प्रवर्त्तता है जहाँ ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया। सो ऐसी दशा का नाम निर्विकल्प अनुभव है। बड़े नयचक्र ग्रन्थमें ऐसा ही कहा है : तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण । णो आराइणसमये पच्चक्खोअणुहवो जह्मा ।। २६६।। अर्थ :- तत्त्वके अवलोकन ( अन्वेषण) का जो काल उसमें समय अर्थात् शुद्धात्माको युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहले जाने। पश्चात् आराधन समय जो अनुभवकाल उसमें नय-प्रमाण नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभव है। जैसे - रत्नको खरीदनेमें अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहिनते हैं, तब विकल्प नहीं है - पहिनने का सुख ही है। इसप्रकार सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प अनुभव होता है। तथा जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों व छठवें मन के द्वारा प्रवर्त्तता था, वह ज्ञान सब ओरसे सिमटकर इस निर्विकल्प अनभवमें केवल स्वरूपसन्मख हआ। क्योंकि वह ज्ञान क्षयोपशमस है इसलिये एक कालमें एक ज्ञेय ही को जानता है, वह ज्ञान स्वरूप जानने को प्रवर्तित हुआ तब अन्यका जानना सहज ही रह गया। वहाँ ऐसी दशा हुई कि बाह्य अनेक शब्दादिक विकार हों तो भी स्वरूप ध्यानी को कुछ खबर नहीं - इसप्रकार मतिज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ। तथा नयादिकके विचार मिटनेपर श्रुतज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ। ऐसा वर्णन समयसार की टीका आत्मख्यातिमें है तथा आत्मावलोकनादिमें है। इसीलिये निर्विकल्प अनुभव को अतीन्द्रिय कहते हैं। क्योंकि इन्द्रियोंका धर्मतो यह है कि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्दको जानें, वह यहाँ नहीं है; और मनका धर्म यह है कि अनेक विकल्प करे, वह भी यहाँ नहीं है; इसलिये यद्यपि जो ज्ञान इन्द्रिय-मन में प्रवर्त्तता था वही ज्ञान अब अनुभवमें प्रवर्त्तता है तथापि इस ज्ञानको अतीन्द्रिय कहते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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