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कुधर्मका निरुपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध
अब कुधर्मका निरुपण करते हैं:
जहाँ हिंसादि पाप उत्पन्न हों व विषय - कषायोंकी वृद्धि हो वहाँ धर्म माने; सो कुधर्म जानना । यज्ञादिक क्रियाओंमें महाहिंसादिक उत्पन्न करे, बड़े जीवोंका घात करे और इन्द्रियोंके विषय पोषण करे, उन जीवोंमें दुष्टबुद्धि करके रौद्रध्यानी हो, तीव्र लोभसे औरोंका बुरा करके अपना कोई प्रयोजन साधना चाहे; और ऐसे कार्य करके वहाँ धर्म माने; सो कुधर्म है।
[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा तीर्थोंमें व अन्यत्र स्नानादि कार्य करे, वहाँ बड़े-छोटे बहुतसे जीवोंकी हिंसा होती है, शरीरको चैन मिलता है; इसलिये विषय-पोषण होता है और कामादिक बढ़ते हैं; कुतूहलादिसे वहाँ कषायभाव बढ़ाता है और धर्म मानता है; सो यह कुधर्म है।
तथा संक्रान्ति, ग्रहण, व्यतिपातादिकमें दान देता है व बुरे ग्रहादिके अर्थ दान देता है; पात्र जानकर लोभी पुरुषोंको दान देता है; दान देनेमें सुवर्ण, हस्ती, घोड़ा, तिल आदि वस्तुओंको देता है। परन्तु संक्रान्ति आदि पर्व धर्मरूप नहीं हैं, ज्योतिषीके संचारादिक द्वारा संक्रान्ति आदि होते हैं। तथा दुष्ट ग्रहादिकके अर्थ दिया वहाँ भय, लोभादिककी अधिकता हुई, इसलिये वहाँ दान देनेमें धर्म नहीं है । तथा लोभी पुरुष देने योग्य पात्र नहीं है, क्योंकि लोभी नाना असत्य युक्तियाँ करके ठगते हैं, किंचित् भला नहीं करते। भला तो तब होता है जब इसके दानकी सहायतासे वह धर्म साधन करे; परन्तु वह तो उल्टा पापरूप प्रवर्तता है । पापके सहायकका भला कैसे होगा ?
यही “ रयणसार” शास्त्रमें कहा है :
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सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाणं सोहं वा ।
लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा सवस्स जाणेह ।। २६ ।।
अर्थ :- सत्पुरुषोंको दान देना कल्पवृक्षोंके फलोंकी शोभा समान है। शोभा भी है और सुखदायक भी है। तथा लोभी पुरुषोंको दान देना होता है सो शव अर्थात् मुर्देकी ठठरीकी शोभा समान जानना । शोभा तो होती है परन्तु मालिकको परम दुःखदायक होती है; इसलिये लोभी पुरुषोंको दान देनेमें धर्म नहीं है ।
तथा द्रव्य तो ऐसा देना चाहिये जिससे उसके धर्म बढ़े; परन्तु स्वर्ण, हस्ती आदि देनेसे तो हिंसादिक उत्पन्न होते हैं और मान-लोभादिक बढ़ते हैं उससे महापाप होता है। ऐसी वस्तुओंको देनेवालेके पुण्य कैसे होगा ?
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