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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा व्रत, तप आदि मोक्षमार्ग है नहीं, निमित्तादिककी अपेक्षा उपचारसे इनको मोक्षमार्ग कहते हैं, इसलिये इन्हें व्यवहार कहा है। - इसप्रकार भूतार्थ-अभूतार्थ मोक्षमार्गपनेसे इनको निश्चय-व्यवहार कहा है; सो ऐसा ही मानना। परन्तु यह दोनों ही सच्चे मोक्षमार्ग हैं, इन दोनोंको उपादेय मानना; वह तो मिथ्याबुद्धि है।
वहाँ कहता है कि श्रद्धान तो निश्चयका रखते हैं और प्रवृत्ति व्यवहाररूप रखते हैं; - इस प्रकार हम दोनोंको अंगीकार करते हैं।
सो ऐसा भी नहीं बनता; क्योंकि निश्चयका निश्चयरूप और व्यवहारका व्यवहाररूप श्रद्धान करना योग्य है। एक ही नयका श्रद्धान होनेसे एकान्त मिथ्यात्व होता है। तथा प्रवृत्तिमें नयका प्रयोजन ही नहीं है। प्रवृत्ति तो द्रव्यकी परिणति है; वहाँ जिस द्रव्यकी परिणति हो उसको उसीकी प्ररूपित करे सो निश्चयनय, और उसहीको अन्य द्रव्यकी प्ररूपित करे सो व्यवहारनय; - ऐसे अभिप्रायानुसार प्ररूपणसे उस प्रवृत्तिमें दोनों नय बनते हैं; कुछ प्रवृत्ति ही तो नयरूप है नहीं। इसलिये इस प्रकार भी दोनों नयोंका ग्रहण मानना मिथ्या है।
तो क्या करें ? सो कहते हैं :
निश्चयनयसे जो निरूपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगीकार करना और व्यवहारनयसे जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना।
यही समयसार कलश में कहा है :
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै - स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः ।
सम्यनिश्चयमेकमेव परमं निष्कम्पमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बघ्नन्ति सन्तो धृतिम् ।। १७३ ।।
अर्थ :- क्योंकि सर्व ही हिंसादि व अहिंसादिमें अध्यवसाय है सो समस्त ही छोड़ना - ऐसा जिनदेवोंने कहा है। इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही छुड़ाया है। सन्त पुरुष एक परम निश्चयहीको भले प्रकार निष्कम्परूपसे अंगीकार करके शुद्धज्ञानघनरूप निजमहिमामें स्थिति क्यों नहीं करते?
भावार्थ :- यहाँ व्यवहारका तो त्याग कराया है, इसलिये निश्चयको अंगीकार करके निजमहिमारूप प्रवर्तना युक्त है।
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