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[ रहस्यपूर्ण चिट्ठी
यहाँ पर तो आगम-अनुमानादिक परोक्ष ज्ञानसे आत्माका अनुभव होता है। जैनागममें जैसा आत्माका स्वरूप कहा है उसे वैसा जानकर उसमें परिणामोंको मग्न करता है इसलिये आगम परोक्ष प्रमाण कहते हैं। अथवा “ मैं आत्मा ही हूँ, क्योंकि मुझमें ज्ञान है; जहाँ-जहाँ ज्ञान है वहाँ-वहाँ आत्मा है - जैसे सिद्धादिक हैं; तथा जहाँ आत्मा नहीं है वहाँ ज्ञान भी नहीं है - जैसे मृतक कलेवरादिक हैं।" - इसप्रकार अनुमान द्वारा वस्तु का निश्चय करके उसमें परिणाम मग्न करता है। इसलिये अनुमान परोक्ष प्रमाण कहा जाता है। अथवा आगम-अनुमानादिक द्वारा जो वस्तु जाननेमें आयी उसी को याद रख कर उसमें परिणाम मग्न करता है इसलिये स्मृति कही जाती है; इत्यादि प्रकार से स्वानुभवमें परोक्ष प्रमाण द्वारा ही आत्मा का जानना होता है। वहाँ पहले जानना होता है, पश्चात् जो स्वरूप जाना उसी में परिणाम मग्न होते हैं, परिणाम मग्न होनेपर कुछ विशेष जानपना होता नहीं है।
यहाँ फिर प्रश्न :- यदि सविकल्प-निर्विकल्पमें जाननेका विशेष नहीं है तो अधिक आनन्द कैसे होता है ?
उसका समाधान :- सविकल्प दशामें ज्ञान अनेक ज्ञेयोंको जाननेरूप प्रवर्त्तता था, निर्विकल्पदशामें केवल आत्माका ही जानना है: एक तो यह विशेषता है। दसरी विशेषता यह है कि जो परिणाम नाना विकल्पोंमें परिणमित होता था वह केवल स्वरूपहीसे तादात्म्यरूप होकर प्रवृत्त हुआ; दूसरी यह विशेषता हुई।
ऐसी विशेषताएं होनेपर कोई वचनातीत ऐसा अपूर्व आनन्द होता है जो कि विषय सेवन में उसकी जाति का अंश भी नहीं है, इसलिये उस आनन्दको अतीन्द्रिय कहते हैं।
यहाँ फिर प्रश्न :- अनुभव में भी आत्मा परोक्ष ही है, तो ग्रन्थों में अनुभव को प्रत्यक्ष कैसे कहते हैं ? ऊपरकी गाथा में ही कहा है 'पच्चखो अणुहवो जम्हा' सो कैसे है ?
उसका समाधान :- अनुभव में आत्मा तो परोक्ष ही है, कुछ आत्मा के प्रदेश आकार तो भासित होते नहीं हैं; परन्त स्वरूपमें परिणाम मग्न होनेसे जो स्वानुभव हुआ वह स्वानुभवप्रत्यक्ष है। स्वानुभवका स्वाद कुछ आगम-अनुमानादिक परोक्ष प्रमाण द्वारा नहीं जानता है, आप ही अनुभवके रस स्वाद को वेदता है। जैसे कोई अंध-पुरुष मिश्री को आस्वादता है; वहाँ मिश्रीके आकारादि तो परोक्ष हैं, जो जिह्वा से स्वाद लिया है वह स्वाद प्रत्यक्ष है - वैसे स्वानुभवमें आत्मा परोक्ष है, जो परिणामसे स्वाद आया वह स्वाद प्रत्यक्ष है; - ऐसा जानना।
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