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सातवाँ अधिकार ]
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अर्थ :- भेदज्ञान को तबतक निरन्तर भाना, जब तक परसे छूटकर ज्ञान ज्ञानमें स्थित हो । इसलिये भेदज्ञान छूटनेपर परका जानना मिट जाता है, केवल आपहीको आप जानता रहता है।
यहाँ तो यह कहा है कि पूर्वकालमें स्व-परको एक जानता था; फिर भिन्न जानने के लिये भेदज्ञानको तब तक भाना ही योग्य है जब तक ज्ञान पररूपको भिन्न जानकर अपने ज्ञानस्वरूपहीमें निश्चित हो जाये । पश्चात् भेदविज्ञान करनेका प्रयोजन नहीं रहता, स्वयमेव परको पररूप और आपको आपरूप जानता रहता है। ऐसा नहीं है कि परद्रव्यका जानना ही मिट जाता है। इसलिये परद्रव्यको जानने या स्वद्रव्यके विशेषोंके जाननेका नाम विकल्प नहीं है।
तो किस प्रकार है ? सो कहते हैं । राग-द्वेषवश किसी ज्ञेयको जाननेमें उपयोग लगाना और किसी ज्ञेयके जाननेसे छुड़ाना इसप्रकार बारम्बार उपयोगको भ्रमाना उसका नाम विकल्प है। तथा जहाँ वीतरागरूप होकर जिसे जानते हैं उसे यथार्थ जानते हैं, अन्य - अन्य ज्ञेयको जाननेकेअर्थ उपयोगको भ्रमाते नहीं हैं; वहाँ निर्विकल्पदशा जानना।
यहाँ कोई कहे कि छद्मस्थका उपयोग तो नाना ज्ञेयोंमें भ्रमता ही भ्रमता है; वहाँ निर्विकल्पता कैसे सम्भव है ?
उत्तर :- जितने काल एक जाननेरूप रहे तब तक निर्विकल्प नाम पाता है । सिद्धान्तमें ध्यानका लक्षण ऐसा ही किया है
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' एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ” ( तत्त्वार्थसुत्र ९ - २७ )
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फिर वह कहता है उपदेश किसलिये दिया है ?
एकका मुख्य चिंतवन हो और अन्य चिंता रुक जाये उसका नाम ध्यान है । सर्वार्थसिद्धि सूत्रकी टीकामें यह विशेष कहा है यदि सर्व चिंता रुकनेका नाम ध्यान हो तो अचेतनपना आ जाये । तथा ऐसी भी विवक्षा है कि सन्तान अपेक्षा नाना ज्ञेयोंका भी जानना होता है; परन्तु जब तक वीतरागता रहे, रागादिसे आप उपयोगको न भ्रमायें तब तक निर्विकल्पदशा कहते हैं ।
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ऐसा है तो परद्रव्यसे छुड़ाकर स्वरूपमें उपयोग लगानेका
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समाधान :- जो शुभ - अशुभभावों के कारण परद्रव्य हैं; उनमें उपयोग लगानेसे जिनको राग-द्वेष हो आते हैं, और स्वरूप चिंतवन करें तो जिनके राग-द्वेष घटते हैं ऐसे निचली अवस्थावाले जीवोंको पूर्वोक्त उपदेश है। जैसे कोई स्त्री विकारभावसे पराये घर जाती थी; उसे मना किया कि पराये घर मत जा, घरमें बैठी रह । तथा जो स्त्री
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