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सातवाँ अधिकार]
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एक अपने आत्माके शुद्ध अनुभवनको ही मोक्षमार्ग जानकर संतुष्ट हुआ है। उसका अभ्यास करनेको अन्तरंगमें ऐसा चितवन करता रहता है कि मैं 'सिद्धसमान शुद्ध हूँ, केवलज्ञानादि सहित हूँ, द्रव्यकर्म-नोकर्म रहित हूँ, परमानंदमय हूँ, जन्म-मरणादि दुःख मेरे नहीं हैं'; इत्यादि चिंतवन करता है।
सो यहाँ पूछते हैं कि यह चिंतवन यदि द्रव्यदृष्टिसे करते हो तो द्रव्यतो शुद्ध-अशुद्ध सर्व पर्यायोंका समुदाय है; तुम शुद्धही अनुभवन किसलिये करते हो ? और पर्यायदृष्टिसे करते हो तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुद्ध पर्याय है; तुम अपनेको शुद्ध कैसे मानते हो ?
____ तथा यदि शक्तिअपेक्षा शुद्ध मानते हो तो ' मैं ऐसा होने योग्य हूँ' – ऐसा मानो; ' मैं ऐसा हूँ' - ऐसा क्यों मानते हो? इसलिये अपनेको शुद्धरूप चिंतवन करना भ्रम है। कारण कि तुमने अपने को सिद्ध समान माना तो यह संसार अवस्था किसकी है ? और तुम्हारे केवलज्ञानादि हैं तो यह मतिज्ञानादिक किसके हैं ? और द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित हो तो ज्ञानादिककी व्यक्तता क्यों नहीं है? परमानंदमय हो तो अब कर्त्तव्य क्या रहा? जन्ममरणादि दुःख नहीं हैं तो दु:खी कैसे होते हो? – इसलिये अन्य अवस्थामें अन्य अवस्था मानना भ्रम है।
यहाँ कोई कहे कि शास्त्रमें शुद्ध चितवन करनेका उपदेश कैसे दिया है ?
उत्तर :- एक तो द्रव्य अपेक्षा शुद्धपना है, एक पर्याय अपेक्षा शुद्धपना है। वहाँ द्रव्य अपेक्षा तो परद्रव्यसे भिन्नपना और अपने भावों से अभिन्नपना – उसका नाम शुद्धपना है। और पर्याय अपेक्षा औपाधिकभावोंका अभाव होनेका नाम शुद्धपना है। सो शुद्ध चितवनमें द्रव्य अपेक्षा शुद्धपना ग्रहण किया है। वही समयसार व्याख्यामें कहा है :
“एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते।"
(गाथा ६ की टीका) इसका अर्थ यह है कि आत्मा प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है। सो यही समस्त परद्रव्योंके भावोंसे भिन्नपने द्वारा सेवन किया गया शुद्ध ऐसा कहा जाता है।
तथा वहीं ऐसा कहा है :“ समस्तकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः।”
_ (गाथा ७३ की टीका)
अर्थ :- समस्त ही कर्ता, कर्म आदि कारकोंके समूहकी प्रक्रियासे पारंगत ऐसी निर्मल अनुभूति, जो अभेदज्ञान तन्मात्र है, उससे शुद्ध है। इसलिये ऐसा शुद्ध शब्दका अर्थ जानना।
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