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पहला अधिकार]
पुनश्च , वह कहता है कि - यह भी माना; परन्तु जिनशासनके भक्त देवादिक हैं उन्होनें उस मंगल करनेवालेकी सहायता नहीं की और मंगल न करनेवालेको दण्ड नहीं दिया सो क्या कारण ? उसका समाधान :- जीवों को सुख-दुःख होनेका प्रबल कारण अपना कर्मका उदय है, उसहीके अनुसार बाह्य निमित्त बनते हैं, इसलिये जिसके पापका उदय हो उसको सहायका निमित्त नहीं बनता और जिसके पुण्यका उदय हो उसको दण्डका निमित्त नहीं बनता।
यह निमित्त कैसे नहीं बनता सो कहते हैं :- जो देवादिक हैं वे क्षयोपशमज्ञानसे सबको युगपत् नहीं जान सकते । इसलिये मंगल करनेवाले और नहीं करनेवाले का जानपना किसी देवादिकको किसी कालमें होता है। इसलिये यदि उनका जानपना न हो तो कैसे सहाय करें अथवा दण्ड दें ? और जानपनाहो, तब स्वयंको जो अतिमंदकषायहो तो सहाय करनेके या दण्ड देनेके परिणाम ही नहीं होते, तथा तीव्रकषाय हो तो धर्मानुराग नहीं हो सकता, तथा मध्यमकषायरूप वह कार्य करनेके परिणाम हुए और अपनी शक्ति न हो तो क्या करें ? - इस प्रकार सहाय करनेका या दण्ड देने का निमित्त नहीं बनता ।
यदि अपनी शक्ति हो और अपनेको धर्मानुरागरूप मध्यमकषाय का उदय होनेसे वैसे ही परिणाम हों. तथा उस समय अन्य जीवका धर्म-अधर्मरूप कर्त्तव्य जानें. तब कोई देवादिक किसी धर्मात्मा की सहाय करते हैं अथवा किसी अधर्मीको दण्ड देते हैं। - इस प्रकार कार्य होनेका कुछ नियम तो है नहीं - ऐसे समाधान किया ।
यहाँ इतना जानना कि सुख होनेकी, दुःख न होनेकी, सहाय कराने की, दुःख दिलाने की जो इच्छा है सो कषायमय है; तत्काल तथा आगामी कालमें दुःखदायक है। इसलिये ऐसी इच्छा को छोड़कर हमने तो एक वीतराग-विषेशज्ञान होने के अर्थी होकर अरहंतादिकको नमस्कारादिरूप मंगल किया है।
ग्रंथकी प्रामाणिकता और आगम-परम्परा
इस प्रकार मंगलाचरण करके अब सार्थक “ मोक्षमार्गप्रकाशक” नामके ग्रंथका उद्योत करते हैं। वहाँ, 'यह ग्रंथ प्रमाण है' - ऐसी प्रतीति कराने के हेतु पूर्व अनुसारका स्वरूप निरूपण करते हैं :
अकारादि अक्षर हैं वे अनादि-निधन हैं, किसीके किये हुए नहीं है। इनका आकार लिखना तो अपनी इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार है, परन्तु जो अक्षर बोलनेमें आते हैं वे तो सर्वत्र सर्वदा ऐसे प्रवर्तते हैं । इसलिये कहा है कि - ‘सिद्धो वर्णसमाम्नायः।' इसका
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