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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
अर्थों का ज्ञान नहीं है उनके इस कारण बड़े ग्रन्थों का अभ्यास तो बन नहीं सकता; तथा किन्हीं छोटे ग्रन्थों का अभ्यास बने तो भी यथार्थ अर्थ भासित नहीं होता । - इस प्रकार इस समय में मंदज्ञानवान् जीव बहुत दिखाई देते हैं, उनका भला होने के हेतु धर्मबुद्धि से यह भाषामय ग्रन्थ बनाता हूँ ।
पुनश्च जिस प्रकार बड़े दरिद्री को अवलोकनमात्र चिन्तामणि की प्राप्ति हो और वह अवलोकन न करे, तथा जैसे कोढ़ी को अमृत - पान कराये और वह न करे, उसी प्रकार संसार पीड़ित जीव को सुगम मोक्षमार्ग के उपदेश का निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके अभाग्य की महिमा हमसे तो नहीं हो सकती । उसकी होनहार ही का विचार करने पर अपने को समता आती है । कहा है कि :
साही गुरुजोगे जेण सुणंतीह धम्मवयणाइ । ते धिट्ठदुट्ठचित्ता अह सुहडा भवभयविहुणा ।
स्वाधीन उपदेशदाता गुरु का योग मिलने पर भी जो जीव धर्मवचनों को नहीं सुनते वे धीठ हैं और उनका दुष्ट चित्त है । अथवा जिस संसार भय से तीर्थंकरादि डरे उस संसारभय से रहित हैं वे बड़े सुभट हैं ।
पुनश्च, प्रवचनसार में भी मोक्षमार्ग का अधिकार किया है, वहाँ प्रथम आगमज्ञान ही उपादेय कहा है । सो इस जीव का तो मुख्य कर्त्तव्य आगमज्ञान है । उसके होने से तत्त्वों का श्रद्धान होता है, तत्त्वों का श्रद्धान होने से संयम भाव होता है, और उस आगम से आत्मज्ञान की भी प्राप्ति होती है; तब सहज ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
पुनश्च धर्म के अनेक अङ्ग नहीं है; इसलिये जिस - तिस प्रकार
उनमें एक ध्यान बिना उससे ऊँचा और धर्म का अंग आगम - अभ्यास करना योग्य है ।
पुनश्च, इस ग्रन्थका तो वाँचना, सुनना, विचारना बहुत सुगम है कोई व्याकरणादिक का भी साधन नहीं चाहिये; इसलिये अवश्य इसके अभ्यास में प्रवर्तो । तुम्हारा कल्याण होगा ।
-इति मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र में पीठबन्ध प्ररूपक प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ।।१।।
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