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पहला अधिकार]
[१७
गुणों के धारक मुनि अथवा श्रावक उनके मुख से तो शास्त्र सुनना योग्य है, और पद्धति बुद्धि से अथवा शास्त्र सुननेके लोभ से श्रद्धानादिगुणरहित पापी पुरुषों के मुख से शास्त्र सुनना उचित नहीं है । कहा है कि :
तं जिणआणपरेण य धम्मो सोयव्व सुगुरुपासम्मि । अह उचिओ सद्धाओ तस्सुवएसस्स कहगाओ ।।
अर्थ :- जो जिन आज्ञा मानने में सावधान है उसे निर्ग्रन्थ सुगुरु ही के निकट धर्म सुनना योग्य है, अथवा उन सुगुरु ही के उपदेश को कहने वाला उचित श्रद्धानी श्रावक उससे धर्म सुनना योग्य है ।
ऐसा जो वक्ता धर्मबुद्धि से उपदेशदाता हो वही अपना तथा अन्य जीवों का भला करे । और जो कषायबुद्धि से उपदेश देता है वह अपना तथा अन्य जीवों का बुरा करता है - ऐसा जानना ।
इस प्रकार वक्ता का स्वरूप कहा ।
श्रोता का स्वरूप
अब श्रोता का स्वरूप कहते हैं :- भली होनहार है इसलिये जिस जीवको ऐसा विचार आता है कि मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है ? यह चारित्र कैसे बन रहा है ? ये मेरे भाव होते हैं उनका क्या फल लगेगा ? जीव दुःखी हो रहा है सो दुःख दूर होने का क्या उपाय है ? -मुझको इतनी बातोंका निर्णय करके कुछ मेरा हितहो सो करना - ऐसे विचार से उद्यमवन्त हुआ है । पुनश्च , इस कार्य की सिद्धि शास्त्र सुननेसे होती है ऐसा जानकर अति प्रीतिपूर्वक शास्त्र सुनता है; कुछ पूछनाहो सो पूछता है; तथा गुरुओं के कहे अर्थ को अपने अन्तरङ्ग में बारम्बार विचारता है और अपने विचार से सत्य अर्थों का निश्चय करके जो कर्तव्य हो उसका उद्यमी होता है-ऐसा तो नवीन श्रोताका स्वरूप जानना।
पुनश्च , जो जैनधर्म के गाढ़ श्रद्धानी हैं तथा नाना शास्त्र सुनने से जिनकी बुद्धि निर्मल हुई है तथा व्यवहार-निश्चयादिका स्वरूप भलीभाँति जानकर जिस अर्थ को सुनते हैं, उसे यथावत् निश्चय जानकर अवधारण करते हैं; तथा जब प्रश्न उठता है तब अति विनयवान होकर प्रश्न करते हैं अथवा परस्पर अनेक प्रश्नोत्तर कर वस्तु का निर्णय करते हैं; शास्त्राभ्यास में अति आसक्त हैं; धर्मबुद्धि से निंद्य कार्यों के त्यागी हुए हैं – ऐसे उन शास्त्रों के श्रोता होना चाहिए ।
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