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[मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रश्न :- मुनियों के एक कालमें एक भाव होता है, वहाँ उनके बन्ध भी होता है और संवर-निर्जरा भी होते हैं, सो किस प्रकार है ?
समाधान :- वह भाव मिश्ररूप है। कुछ वीतराग हुआ है, कुछ सराग रहा है। जो अंश वीतराग हुए उनसे संवर है और जो अंश सराग रहे उनसे बन्ध है। सो एक भावसे तो दो कार्य बनते हैं, परन्तु एक प्रशस्तरागहीसे पुण्यास्रव भी मानना और संवर-निर्जरा भी मानना सो भ्रम है। मिश्रभावमें भी यह सरागता है, यह वीतरागता है - ऐसी पहिचान सम्यग्दृष्टिहीके होती है. इसलिये अवशेष सरागताको हेयरूप श्रद्धा करता है। मिथ्यादृष्टिके ऐसी पहिचान नहीं है, इसलिये सरागभावमें संवरके भ्रमसे प्रशस्तरागरूप कार्योंको उपादेयरूप श्रद्धा करता है।
तथा सिद्धान्तमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र - इनके द्वारा संवर होता है ऐसा कहा है. सो इनकी भी यथार्थ श्रद्धा नहीं करता।
किस प्रकार ? सो कहते हैं :
गुप्ति :- बाह्य मन-वचन-कायकी चेष्टा मिटाये, पाप-चितवन न करे, मौन धारण करे, गमनादि न करे; उसे वह गुप्ति मानता है। सो यहाँ तो मनमें भक्ति आदिरूप प्रशस्तरागसे नाना विकल्प होते हैं, वचन-कायकी चेष्टा स्वयंने रोक रखी है; वहाँ शुभप्रवृत्ति है, और प्रवृत्तिमें गुप्तिपना बनता नहीं है; इसलिये वीतरागभाव होनेपर जहाँ मन-वचन-कायकी चेष्टा न हो वही सच्ची गुप्ति है।
समिति :- तथा परजीवोंकी रक्षाके अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति उसको समिति मानता है। सो हिंसाके परिणामोंसे तो पाप होता है और रक्षाके परिणामोंसे संवर कहोगे तो पुण्यबन्धका कारण कौन ठहरेगा ? तथा एषणासमितिमें दोष टालता है वहाँ रक्षाका प्रयोजन है नहीं; इसलिये रक्षाहीके अर्थ समिति नहीं है।
__तो समिति कैसी होती है ? मुनियोंके किंचित राग होनेपर गमनादिक्रिया होती है, वहाँ उन क्रियाओंमें अतिआसक्तताके अभावसे प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती। तथा अन्य जीवोंको दु:खी करके अपना गमनादि प्रयोजन नहीं साधते, इसलिये स्वयमेव ही दया पलती है। इसप्रकार सच्ची समिति है।
धर्म :- तथा बन्धादिकके भयसे अथवा स्वर्ग-मोक्षकी इच्छासे क्रोधादि नहीं करते, परन्तु वहाँ क्रोधादि करनेका अभिप्राय तो मिटा नहीं है। जैसे – कोई राजादिकके भयसे
१ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः । (तत्त्वार्थसूत्र ९-२)
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