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पहला अधिकार]
ही अघातिकर्मों के उदय से उनका शरीररूपपुद्गल दिव्यध्वनिरूप परिणमित होता है, उसके द्वारा मोक्षमार्गका प्रकाशन होता है ।
पुनश्च , गणधरदेवों को यह विचार आया कि जब केवलीसूर्य का अस्तपना होगा तब जीव मोक्षमार्गको कैसे प्राप्त करेंगे? और मोक्षमार्ग प्राप्त किये बिना जीव दुःख सहेंगे; ऐसी करुणा बुद्धिसे अंगप्रकीर्णकादिरूप ग्रन्थ वे ही हुए महान् दीपक उनका उद्योत किया।
पुनश्च , जिस प्रकार दीपक से दीपक जलाने से दीपकों की परम्परा प्रवर्तती है उसी प्रकार किन्हीं आचार्यादिकों ने उन ग्रन्थों से अन्य ग्रन्थ बनाये और फिर उन पर से किन्हीं ने अन्य ग्रन्थ बनाये । इस प्रकार ग्रन्थ होने से ग्रन्थों की परम्परा प्रवर्तती है । मैं भी पूर्व ग्रन्थों से यह ग्रन्थ बनाता हूँ ।
पुनश्च , जिस प्रकार सूर्य तथा सर्व दीपक हैं वे मार्ग को एकरूप ही प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार दिव्यध्वनि तथा सर्व ग्रन्थ हैं वे मोक्षमार्ग को एकरूप ही प्रकाशित करते हैं; सो यह भी ग्रन्थ मोक्षमार्ग को प्रकाशित करता है । तथा जिस प्रकार प्रकाशित करने पर भी जो नेत्र रहित अथवा नेत्र विकार सहित पुरुष हैं उनको मार्ग नहीं सूझता, तो दीपक के तो
कपने का अभाव हुआ नहीं है; उसी प्रकार प्रगट करने पर भी जो मनज्ञान रहित है अथवा मिथ्यात्वादि विकार सहित हैं उन्हें मोक्षमार्ग नहीं सूझता, तो ग्रन्थ के तो मोक्षमार्गप्रकाशकपने का अभाव हआ नहीं है ।
इस प्रकार इस ग्रन्थ का मोक्षमार्ग प्रकाशक ऐसा नाम सार्थक जानना ।
प्रश्न :- मोक्षमार्ग के प्रकाशक ग्रन्थ पहले तो थे ही, तुम नवीन ग्रन्थ किसलिये बनाते हो?
समाधान :- जिस प्रकार बड़े दीपकों का तो उद्योत बहुत तेलादिक के साधन से रहता है, जिनके बहुत तेलादिक की शक्ति न हो उनको छोटा दीपक जला दें तो वे उसका साधन रख कर उसके उद्योत से अपना कार्य करें; उसी प्रकार बड़े ग्रन्थों का तो प्रकाश बहुत ज्ञानादिक के साधन से रहता है, जिनके बहुत ज्ञानादिक की शक्ति नहीं है उनको छोटा ग्रन्थ बना दें तो वे उसका साधन रखकर उसके प्रकाश से अपना कार्य करें; इसलिये यह छोटा सुगम ग्रन्थ बनाते हैं ।
पुनश्च , यहाँ जो मैं यह ग्रन्थ बनाता हूँ सो कषायों से अपना मान बढ़ाने के लिये अथवा लोभ साधने के लिये अथवा यश प्राप्त करने के लिये अथवा अपनी पद्धति रखने के लिये नहीं बनाता हूँ। जिनको व्याकरण-न्यायादिका, नय-प्रमाणादिक का तथा विशेष
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