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घोष ]
इति पाठे अघोरं शान्तं ब्रह्म चारित्रं येषां ते अघोरगुणब्रह्मचारिणः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ४. सिंहव्याघ्रादिसेवितपादपद्माः घोरगुणब्रह्मचारिणः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के द्वारा श्रधिठित क्षेत्र में भी चोर आदि की बाघायें तथा महामारी व महायुद्धादि नहीं होते वह घोरब्रह्मचारित्व ऋद्धि कहलाती है । चारित्रमोहनीय के उत्कृष्ट क्षयोपशम के होने पर जो ऋद्धि दुःस्वप्नों को नष्ट किया करती है उसे घोरब्रह्मचारित्व ऋद्धि जानना चाहिए । अथवा जिस ऋद्धि के प्रगट हो जाने पर महर्षि का ब्रह्मचारित्व सब गुणों के श्राश्रय से अघोर ( शान्त या श्रखण्डित) रहता है उसका नाम घोरब्रह्मचारित्व ऋद्धि है ।
घोष - घोसो णाम घस्समाणदव्वजणिदो | ( धव. पु. १३, पृ. २२१) ।
घिसे जाने वाले द्रव्य से जो शब्द उत्पन्न होता है उसे घोष कहा जाता है । घोषविशुद्धिकरणता - घोषविशुद्धि करणता उदातानुदात्तादिस्वरशुद्धिविधायिता । (उत्तरा. नि. वृ. ५८, पृ. ३९) ।
उच्चारण में उदात्त और प्रनुदात्त श्रादि स्वरों की शुद्धि करना, यह घोषविशुद्धिकरणता नाम की एक (चौथी) श्रुतसम्पत् है ।
घोषसम - घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वदृदि उप्पज्जदित्ति घोससमं णाम अणियोगसुदगाणं XXX उदात्त अणुदात्त सरिदस रंभेएण पढणं घोससममिदि के वि श्राइरिया परूर्वेति । ( धव. पु. ६, पृ. २६१ ) ; तस्स कदिप्रणियोगद्दा रस्एगाणिप्रोगो घोसो । तत्तो समुप्पण्णो कदि प्रणिपोगो, तत्तो असमुप्पज्जिय एदेण समो वि घातसमो । ( धव. पु. ६, पृ. २६६ ) ; बारहंगसद्दागमं सुर्णेतस्स जस्स सुदपरिबद्धत्थविसयमेव सुदगाणं समुपणं सो घोससमं । (घव. पु. १४, पृ. ८-६)।
घोष का अर्थ द्रव्यानुयोगद्वार है, उसके साथ रहने या उत्पन्न होने से अनुयोग श्रुतज्ञान घोषसम कहलाता है । द्वादशांगरूप द्रव्यश्रुत को सुनते हुए जिसके श्रुत से सम्बद्ध अर्थ को विषय करने वाला
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जैन-लक्षणावलो
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[ घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह
हो श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है वह घोषसम कहलाता है ।
घ्राण - १. वीर्यान्तराय मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् श्रात्मना X × × घायतेऽनेनेति घ्राणम् । ( स. सि. २ -१९ ) । २. वीर्यान्तराय प्रतिनियतेन्द्रियावरण- (घ्राणेन्द्रियावरण ) क्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् X X X जिघ्रत्यनेनेति घ्राणम् (त. वा. २, १६, १) । ३. वीर्यान्तराय घ्राणेन्द्रियावरण क्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् जिघ्रत्यनेनात्मेति घ्रा णम् । (घव. पु. १, पू. २४३) । ४. घ्रायते गन्धः उपादीयते आत्मना अनेनेति घ्राणम्, जिघ्रति गन्धमिति घ्राणम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ -१९ ) ।
१ जिसके द्वारा श्रात्मा वीर्यान्तराय और घ्राणेन्द्रियमतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और अंगोपांग नामकर्म के साहाय्य से वस्तुगत सुगन्ध और दुर्गन्ध को ग्रहण किया करता है उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं ।
घ्राणनिरोध - १. पयडीवासणगंधे जीवाजीवप्पगे सुसु । रागद्द साकरणं घाणनिरोहो मुणिवरस्स । (मूला. १ - १९ ) । २. जीवगते अजीवगते च प्रकृतिगन्धे वासनागन्धे च सुखरूपेऽसुखरूपे च यदेतद् राग-द्वेषथोरकरणं मुनिवरस्य तत् घ्राणेन्द्रियनिरोधव्रतं भवतीत्यर्थः । ( मुला. वृ. १ - १६) । ३. प्रकृतिप्रयोगगन्धे जीवाजीवोभयाश्रये । शुभेऽशुभे मनः साम्यं घ्राणेन्द्रियजयं विदुः ॥ ( श्राचा. सा. १ - ३० ) ।
१ जीव या प्रजीवगत प्राकृतिक या प्रयोगरूप सुगन्ध में राग नहीं करने को, तथा दुर्गन्ध में द्वेष नहीं करने को घ्राणनिरोध कहते हैं । घ्राणनिवृति - प्रतिमुक्तकपुष्पसंस्थाना श्रङ्गुलस्यासंख्येयभाग प्रमिता घ्राणनिर्वृतिः । ( धव. पु. १, पू. २३५) ।
प्रतिमुक्तक पुष्प के श्राकार जो अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण पुद्गल की रचना होती है वह घ्राण इन्द्रिय की बाह्यनिवृत्ति है । घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह सुगंधो दुग्गंधो च बहुभेयभिण्णो घाणिदियविसयो, तेसु सुगंध - दुग्गंघपोग्गलेसु आगंतूण प्रदिमुत्तयपुप्फसंठाणट्ठिदघाणिदियम्मि पविट्ठेसु जं पढममुप्पज्जदि सुगंध - दुग्गंध
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