Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 321
________________ निर्लेपन] ६२३, जैन-लक्षणावली [निर्वर्तनाधिकरण निलेपन-माहारसरीरिदिय-प्राणपाणप्रप्पज्जत्तीणं १ अधःप्रवृत्तकरणकाल के संख्यातवें भाग मात्र णिवत्ती णिल्लेवणं णाम । (धव. पु. १४, पृ. परिणामस्थानों का नाम निर्वर्गणाकाण्डक है। ५०७)। निर्वर्तनकाण्डक-१. णिव्वत्तणकंडगं णाम जहपाहार, शरीर, इन्द्रिय प्रौर प्रानपान अपर्याप्तियों णिगाए ठितीए अणुक ड्ढी जत्थ णिट्टिया तं णिव्वकी निति का नाम निलेपन है। त्तणकंडगं बच्चति । (कर्मप्र. चू. बं. क. ६५, पृ. १३७) । २. निर्वर्तनकांडकं नाम यत्र जघन्यस्थितिनिर्लेपनस्थान-१. जत्थ छापज्जत्तिणिमित्तं पो बन्धारम्भ भाविनामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामगाला गमागमो थक्कदि तमिल्लेवणट्टाणं णाम । नुकृष्टिः परिसमाप्ता तत्पर्यन्ता मूलतः प्रारभ्य xxx एवमागच्छमाणे जत्थ पंचण्णं पज्जतीणं स्थित यः पल्योपमासंख्येयभागमात्रप्रमाणा उच्यन्ते । दव्ववयरणाणमक्कमेण णिप्पत्ती होदि तष्णिल्लेवण (कर्मप्र. मलय. व. बं. क. ६५)। टाणं णाम । (धव. पु. १४, पृ. ५२७)। २. एग २ जघन्य स्थिति के बन्ध से लेकर होने वाले मनसमये बद्धकम्मपरमाणवो बंधावलियमेत्तकाले वोलिदे २ जघन्य स्थिात फ बन्ध से लेकर हान वा पच्छा उदयं पविसमाणा केत्तियं पिकालं सांत- भागबन्धाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि के समाप्त र-णिरंत रसरूवेणुदयमागंतूण जम्हि समयम्हि सव्वे होने तक प्रारम्भ से लेकर पल्योपम के प्रसंख्यातवें चेव णिस्सेसमूदयं कादूण गच्छंति तेसि णिरुद्ध भव भाग प्रमाण स्थितियों का नाम निर्वर्तनकाण्डक है। समयपवद्धपदेसाण तणिलेवणट्ठाणमिदि भण्णदे । निर्वर्तना-देखो निर्वर्तनाधिकरण । १. निर्वत्यंते (जयध.-कसायपा. पृ.८१८, टि. नं. २)। इति निर्वर्तना निष्पादना। (स. सि. ६-६ त. सुखबो. ६-६) । २. निर्वय॑ते इति निर्वर्तना । (त. २ कर्मलेप के दूर होने के स्थान को निर्लेपनस्थान वा. ६,६,१)। ३. हिंसोपकरणतया निर्वQते इति कहते हैं । अर्थात् एक समय में बंधे हुए कर्मपर निर्वर्तना । (अन. ध. स्वो. टी. ४-२८) । माण बन्धावली के पश्चात क्रमशः उदय में प्रविष्ट १ जो रचा जाता है उसका नाम निर्वर्तना है। होकर सान्तर या निरन्तररूपसे अपना फल देते हए ३ हिंसा के उपकरणरूप से जिसकी रचना की जिस समय में सभी निःशेषरूप से निर्जीर्ण हो जाते जाती है उसे निर्वर्तना कहते हैं। हैं उसे निलेपनस्थान कहते हैं। निर्वर्तनाधिकरण-१. निर्वर्तनाधिकरणं द्विविघं निर्वर्गरणा-बंधोदयजहण्णकिट्टीणमणंतगुणहाणीए मूल गुणनिर्वर्तनाधिकरण मुत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं प्रोसरणवियप्पा णिव्वग्गणा । (जयप. प्र. प. नेता सलमान विधारीर. ११८२)। वाङ्मनःप्राणापानाश्च । उत्तर गुणनिर्वर्तनं काष्ठबन्ध और उदय सम्बन्धी जघन्य कृष्टियों के अनन्त पुस्त-चित्रकर्मादि । (स. सि. ६.६)। २. तत्र निर्वगुणहानि के क्रम से होने वाले अपसरणभेदों को नाधिकरणं द्विविधं मलगुणनिवर्तनाधिकरणमुत्तरगुनिर्वर्गणा कहते हैं। ण निर्वर्तनाधिकरणं च । तत्र मूलगुणनिर्वर्तना पञ्च निर्वर्गरणाकाण्डक-१. एदिस्से अद्धाए (अधाप- शरीराणि वाङ्मनःप्राणापानाश्च । उत्तर गुणनिववत्तकरणद्धाए) संखेज्जदिभागो णिव्वग्गण कडयं तना काष्ठ-पूस्त चित्रकर्मादीनि । (त. भा. ६-१०)। णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६१५) । २. विवक्खिय- ३. निर्वर्तनाधिकरणं द्विविधं मूलोत्तरभेदात् ।xx समय परिणामाणं जत्तो परमणुकट्टिवोच्छेदो तं तत्र मूलं पंचविधानि शरीराणि वाङ्मनःप्राणागिव्वग्गणकंडयामदि भण्णदे । (जयध. प्र. प. ६४६ पानाश्च । उत्तरं काष्ठ-पुस्त-चित्रकर्मादि । (त. वा. --षट्खं. पु. ६, पृ. २१५ का टि. ३)। ३. ताए ६, ६, १२) । ४. दुःप्रयुक्तं शरीरं हिंसोपकरणतया अधापवत्तद्धाए संखेज्जभागमेत्तं तु । अणुकटीए अद्धा निर्वय॑ते इति निवर्तनाधिकरणं भवति । उपकरणिब्वग्गणकंडयं तं तु । (ल. सा. ४३)। ४. वर्गणा णानि च सच्छिद्राणि यानि जीववधनिमित्तानि समयसादृश्यम्, ततो निष्क्रान्ता उपर्युपरि समय- निवर्तन्त तान्यपि निर्वर्तनाधिकरणम् : (भ. प्रा. वर्तिपरिणामखण्डाः, तेषां काण्डक पर्व निर्वर्गणाका- विजयो. ८१४)। ण्डकम् । (ल. सा. टी. ४३) । १ निर्वर्तनाधिकरण दो प्रकार का है-मूलगुण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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