Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 360
________________ पद्माङ्ग ] पु. १६, पृ. ४६२ ) । ४. शक्तः क्षमी सदात्यागी देवतार्चनउद्यमी । शुचिः शीलसदानन्दः पद्मलेश्यः प्ररूपितः । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. ५, पृ. २०) । १ त्यागी, भद्रपरिणामी, पवित्र, सरल व्यवहार करने वाला, क्षमाशील और साधु एवं गुरुजनों की पूजा में निरत; ये पद्मलेश्या के लक्षण हैं । ६६२, जैन-लक्षणावली पद्माङ्ग – १. कुमुदं चउसीदिहदं पउमंगं होदि XXXI ( ति प ४ - २६६ ) । २. चतुरशीतिमहानलिनशतसहस्राण्येकं पद्माङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय. वृ. ६७; जीवाजी. मलय. वृ. १७८ ) । १ चौरासी से गुणित कुमुद प्रमाण एक पद्मांग होता है । २. चौरासी लाख महानलिनों का एक पद्मांग नाम का संख्याप्रमाण होता है । पद्मासन -- १. जंघाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जंघया । पद्मासनमिति प्रोक्तं तदारुनविचक्षणैः ॥ ( योगशा. ४ - १२६ ) । २. पद्मासनं श्रितौ पादी जङ्घाभ्याम् × × × । ( श्रन. ध. ८-८३) । १ जंघा के मध्य भाग में जहां जंघा से संश्लेश ( सम्बन्ध ) होता है, यह पद्मासन कहलाता है । परकाय क्रिया- प्रदुष्टस्य मिथ्यादृष्टेरुद्यमो यः पराभिभवात्मको वाङ्मनस निरपेक्षः सा तु परतः काक्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) । अतिशय दुष्ट मिथ्यादृष्टि जीव का जो वचन और मन की अपेक्षा से रहित दूसरे के तिरस्कारस्वरूप प्रयत्न होता है उसे परकाय क्रिया कहा जाता है । परकायशस्त्र – परकायशस्त्रं पाषाणाग्न्यादि । ( श्राचारा. नि. शी. वू. १, १, ५, १५०, पृ. ५५ ) । वनस्पतिकाय से भिन्न पत्थर व अग्नि श्रादि परकायशस्त्र कहलाते हैं (द्रव्यनिक्षेपकी अपेक्षा) । परकृतसंहरण परकृतं चारण- विद्याधर- देवैः प्रत्यनीकतया ऽनुकम्पया चोत्क्षिप्यान्यत्र क्षेपणं संहरणम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १०-७, पृ. ३०६ ) । चारणऋद्विधारक, विद्याधर या देवों के द्वारा शत्रुता या अनुकम्पा से प्रेरित होकर किसी के एक क्षेत्र से उठाकर अन्य क्षेत्र में छोड़ने को परकृत संहरण कहते हैं । परक्षेत्र संसार - देखो क्षेत्रपरावर्त व क्षेत्रपरिवर्तन | १. सम्मूर्च्छन-गर्भोपपादजन्म-नवयोनिविक याद्यालम्बनः परक्षेत्रसंसारः । (त. वा. ६, ७, ३; Jain Education International [परचरित्रचर चा. सा. पृ. ८० ) । २. परक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यतेसूक्ष्म निगोदः अपर्याप्तकः सर्वजघन्यावगाहनशरीरः लोकमध्याष्टप्रदेशान् स्वशरीरमध्याष्टप्रदेशान् कृत्वा उत्पन्नः क्षुद्रभवकालं जीवित्वा मृतः स एव पुनस्तेनैव अवगाहनेन द्विर्वारं तथा त्रिवारं तथा चतुर्वारं एवं यावत् घनाङ्गुलासंख्येयभागः तावद्वारं तत्रैवोत्पन्नः पुनः एकै क प्रदेशाधिकभावेन सर्वलोकं स्वस्य जन्मक्षेत्रभावं नयति । तदेतत्सर्वं परक्षेत्रपरिवर्तनं भवति । (गो. जी. जी. प्र. टी. ५६० ) । १ सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद इन तीन जन्मों एवं सचित्तादि नौ योनिभेदों के श्रालम्बन से जो जन्म-मरणरूप संसरण (परिभ्रमण ) होता है उसका नाम परक्षेत्रसंसार है । परघातनाम - देखो पराघातनाम । १. यन्निमित्तः परशस्त्रादेप्रातस्तत्परघातनाम । ( स. सि. ८, ११) । २. यन्निमित्तः पर शस्त्राद्याघातस्तत्परघातनाम | परशब्दोऽन्यपर्यायवाची, फलकाद्यावरणसन्निधानेऽपि यस्योदयात् परप्रयुक्तशस्त्राघातो भवति तत् परघातनाम । (त. वा. ८ ११, १४) । ३. परेषां घातः परघातः, जस्स कम्स्स उदएण परघादहेदू सरीरे पोग्गला णिप्फज्जंति तं कम्मं परघादं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ५६ ) ; जस्स कम्मस्सुदएण सरीरं परपीडायर होदितं परघादणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६४ ) । ४. यन्निमित्तः परशस्त्राघातनं तत्परघातनाम । (त. इलो. ८-११) । ५. परस्य घातः परघातः, यस्य कर्मण उदयात्परघातहेतवः शरीरपुद्गलाः सर्पदंष्ट्रा - वृश्चिकपुच्छादिभवाः, परशस्त्राद्याघाता वा भवन्ति तत्परघातनाम । (मूला. वृ. १२, १९४) । ६. यत्कारणकः शर [पर] शस्त्राद्याघातस्तत्परघातनाम । ( भ. प्रा. मूला. २१२४) । ७. परेषां घातः परघातः, यदुदयात् तीक्ष्णशृंगनख-सर्पदाढादयो भवन्ति तत्परघातनाम । ( गो. क. जी. प्र. ३३) । ८. यदुदयेन परशस्त्रादिना घातो भवति तत्परघातनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । १ जिसके निमित्त से दूसरे के शस्त्र आदि से घात होता है वह परघातनामकर्म कहलाता है । ३. जिस कर्म के उदय से दूसरे का घात करने वाले शरीर में पुद्गल - जैसे सर्प की दाढ़े आदि-उत्पन्न होते हैं, उसे परघात नामकर्म कहते हैं । परचरित्रचर - १. जो परदव्वम्मि महं महं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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