Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 362
________________ परम] ६६४, जैन-लक्षणावली [परमसुख परम-तत्र परमो यः खलु निखिलमलविलयवशो- परमभावग्राहक द्रव्याथिक-गिण्हइ दव्वसहावं पलब्बविशद्धज्ञानबलविलोकितलोकालोकः जगज्जन्तु- असुद्धसुद्धोपचारपरिचत्तं । सो परमभावगाही णायचित्तसन्तोषकारणं पुरन्दरादिसुन्दरसुरसमूहाहिय- व्वो सिद्धिकामेण ।। (ल. न. च. २६; द्रव्यस्व. नय. माणप्रातिहार्यपूजोपचारः तदनु सर्वसत्त्वस्वभाषापरि- ९६)। णामिवाणीविशेषापादितककालानेकसत्त्वसंशयसन्दो- जो प्रशद्ध और शुद्ध के उपचार से रहित द्रव्य के हापोहः स्वविहारपवनप्रसरसमुत्सारितसमस्तमही- स्वभाव को ग्रहण करता है उसे परमभावग्राहक मण्डलातिविततदुरितरजोराशिः सदाशिवादिशब्दाभि- द्रव्याथिकनय कहते हैं। धेयो भगवानहन्निति, स परमः । (ध. वि. मु. वृ. परमषि-१. परमर्षयः केवलज्ञानिनो निगद्यन्ते । १-१, पृ. १)। (चा. सा. पृ. २२)। २. परमर्षिः जगद्वेत्ति केवलजो समस्त कर्म-मल के विलीन हो जाने से प्राप्त ज्ञानचक्षुषा। (धर्मसं. श्रा.९-२८६)। हुए विशुद्ध केवलज्ञान के प्रभाव से लोक-प्रलोक १ केवलज्ञानी संयत जीवों को परमषि कहते हैं। को देखता है, समस्त संसारी प्राणियों के चित्त- परमव्रत-ततः शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोदयादृते । सन्तोष का कारण है, इन्द्र आदि सुन्दर देवों के चारित्रापरनामैतद् व्रतं निश्चयतः परम् ॥ (लाटीसमूह द्वारा लाये गये प्रातिहार्यों से सेवित है, समस्त सं. ४-२५८)। प्राणियों की भाषारूप परिणत होने वाली विशिष्ट मोहकर्म का प्रभाव हो जाने पर शद्धोपयोगरूप जो वाणी के द्वारा एक ही समय में अनेक जीवों के चारित्र होता है उसे निश्चय से परमवत जानना सन्देह को दूर करता है, अपने विहाररूप वायु के चाहिए। प्रसार से समस्त भूमण्डलमें अत्यन्त विस्तृत पापरूप परमसमाधि-वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता धूलि के समूह को नष्ट करता है, तथा जो सदाशिव वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे आदि अनेक नामों से कहा जाता है। ऐसा प्ररहन्त तस्स ।। संजम-णियम-तवेण दु धम्म माणेण सुक्कदेव ही परम (उत्कृष्ट प्रात्मा) मानने के योग्य है। भाणेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ।। परमब्रह्म-१. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म (नि. सा. १२२-२३) । परमम् । (बृ. स्वयम्भू. ११६) । २. परमब्रह्मसंज्ञ- वचन के उच्चारण की क्रिया को छोड़कर-वचनोनिजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसुखामृततृप्तस्य सत उर्व- च्चारण के विना-वीतरागस्वरूप से जो आत्मा शी-रम्भा-तिलोत्तमाभिर्देवकन्याभिरपि यस्य ब्रह्म- का ध्यान करता है उसके परम (निर्विकल्प) चर्यव्रतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते। (ब. द्रव्य- समाधि होती है । संयम, नियम और तप के प्राश्रय सं. टी. १४, पृ. ३७) । से जो धर्म और शुक्ल ध्यान के द्वारा प्रात्मा का १ समस्त प्राणियों की अहिंसा--हिंसा के अभाव- ध्यान करता है उसके परमसमाधि होती है। को परमब्रह्म कहते हैं। २ परमब्रह्म नामक अपनी परमसुख-प्रात्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतशुद्ध प्रात्मा की भावना से उत्पन्न सुखस्वरूप अमृत बाधं विशालं वृद्धि-ह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रसे जो तृप्ति को प्राप्त है तथा जिसका ब्रह्मचर्यव्रत तिद्वन्द्वभावम। अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं उर्वशी, रम्भा और तिलोत्तमादि देवकन्याओं के सर्वकालम् उत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य द्वारा भी खण्डित नहीं किया जा सका ऐसे परम सिद्धस्य जातम् । (सिद्धभ. ७)। पुरुष को परमब्रह्म कहते हैं। जो सुख परके सम्बन्ध से रहित होता हुआ एक परमभावजीव-जो खलु जीवसहावो णो जणि- प्रात्मारूप उपादान से उत्पन्न हुआ है, स्वयं अतिप्रो णो खयेण संभ दो। कम्माणं सो जीवो भणिो शयवान है, बाधा से रहित है, वृद्धि-हानि से इह परमभावेण ।। (द्रव्यस्व. नय. २१५)। विहीन है, विषय से उत्पन्न नहीं हुआ है, प्रतिपक्ष जो जीव का स्वभाव न उत्पन्न हया है और न से विरहित है, अन्य किसी भी बाह्य द्रव्य की अपेक्षा कों के क्षय से प्रादुर्भूत हुआ है उसे परमभाव से नहीं करता है, अनुपम व अपरिमित होता हुआ सदा जीव कहा गया है। रहने वाला है, तथा उत्कृष्ट व अनन्त प्रभाव से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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