Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 296
________________ नाममंगल] ५६८, जैन-लक्षणावली [नामसत्य १८३); भाबसद्दो णामभावो णाम । (घव. पु. पु. १४, पृ. ५२)। १२, पु. १)। ___वर्गणा' यह शब्द नामवर्गणा कहलाता है। बाह्य अर्थ की अपेक्षा न रखते हुए अपने प्राप में नामवेदना-पट्टविहबज्झत्थाणालंबणो वेयणासद्दो ही प्रवत्त 'भाव' शब्द को नामभाव कहा जाता है। णामवेयणा । (धव. प. प.५)। नाममंगल-१. अरहाणं सिद्धाणं प्राइरिय-उव- पाठ प्रकार के बाह्य (जीवाजीवादि) अर्थ का ज्झयाइसाहणं । णामाई णाममंगलमुहिट्ठ बीय- मालम्बन न करने वाले 'वेदना' शब्द को नामराएहिं ।। (ति. प. १-१६)। २. एगम्मि अणेगेसु वेदना कहते हैं। व जीवहव्वे व तस्विवक्खे वा । मंगलसन्ना नियता नामवत-नामव्रतं कस्यचिद व्रतमिति कृता संज्ञा। तं सन्नामंगलं होइ॥ (बृहत्क. भा. ६)। ३. तत्र (भ. प्रा. विजयो. ११८५)। यत् जीवस्याजीवस्योभयस्य वा मङ्गलमिति नाम. किसी पदार्थ की जो वत' ऐसी संज्ञा की जाती है क्रियते तन्नाममङ्गलम् । (प्राव. हरि. व. १, पृ. उसे नामवत कहा जाता है। ४)। ४. तत्थ नाममंगलं नाभ णिमित्तंत रणिरवे- नामश्रुत-से कि तं नामसुमं? २ जस्स णं क्खा मंगलसण्णा । (धव. पु. १, पृ. १७); बच्च. जीवस्स वा जाव सुएत्ति नामं वजह से तं नामस्थणिरवेक्खो मंगलसद्दो णाममंगलं । (धव. पु. १, सुग्रं । (अनुयो. सू. ३०)। पृ. १६) । ५. तत्र मङ्गलमिति नामव नामङ्गलम्। एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, (उत्तरा. नि. शा. व. पृ. २)। एक-एक जीव-अजीव अथवा बहुत-बहुत जीव१ अरहंत आदि पांच परमेष्ठियों के नामों को प्रजीव; इनमें से जिसका 'श्रत' यह नाम किया नाममंगल कहते हैं। २ एक जीवद्रव्य, अनेक जीव जाता है उसे नामत कहते हैं। द्रव्यों अथवा उनके विपक्षभूत एक-अनेक अजीव नामसत्य-१. नामसच्चं नाम जं जीवस्स अजीद्रव्यों में जो 'मंगल' यह संज्ञा नियत है उसे संज्ञा- वस्स वा सच्चमिति नाम कीरइ। (दशवे. च. प. मंगल या नाममंगल कहा जाता है। २३६)। २. तत्र सचेतनेतरद्रव्यस्यासत्यप्यर्थे यद नामलक्षण-१. लक्खणमिह जं णाम जस्स व व्यवहारार्थ संज्ञाकरण तन्नामसत्यम, इन्द्र इत्यादि । लक्खिज्जए व जो जेणं । (विशेषा. भा. २६४५)। (त. वा. १,२०, १२, पृ.७५; धव. पु. १, पृ. ११७; २. लक्षणमिति यन्नाम यदभिधानं वर्णविन्यासो चा. सा. प. २९ कातिके. टी. ३६८) । ३. दशधा वा तन्नामलक्षणम्, लक्ष्यतेऽनेनेति कृत्वा, यस्य वा सत्यसद्भावे नामसत्यमुदाहृतम् । इन्द्रादिव्यवहारार्थ पदार्यस्य लक्षणमिति संज्ञा विधीयते स नामलणम्, यत् संज्ञाकरणं हि तत् ॥ (ह. पु. १०,६८)। ४. प्रभेदात्, यो वा अग्न्यादिर्येन नाम्ना चिह्नयते। नामसत्यं नाम कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्यु(विशेषा. भा. व. २६४५-नि. ७५१) । च्यते, धनमवर्धयन्नपि धनवर्धन इत्युच्यते, अयक्षश्च जिस किसी वस्तु का 'लक्षण' ऐसा नाम किया यक्ष इति । (दशवं. नि.हरि. व. २०८, पृ. २७३)। जाता है उसे, अथवा जिस (लक्षणशब्द) के द्वारा ५. इन्द्रादिसंज्ञा स्वप्रवृत्तिनिमित्तजाति-गुण-क्रियापदार्थ लक्षित होता है उसे भी नामलक्षण कहते हैं। द्रव्यनिरपेक्षा तच्छब्दाभिधेयसम्बन्धपरिणतिमात्रेण नामलेश्या-लेस्सासद्दो णामलेस्सा। (षव. पु. वस्तुनः प्रवृत्ता नामसत्यम् । (भ. प्रा. विजयो. व १६, पृ. ४८४)। मला. टी. ११६३)। ६. व्यवहारप्रसिद्धयर्थमर्था'लेश्या' शब्द को नामलेश्या कहा जाता है। भावो[वे]ऽपि लौकिकः। कृतं नाम मतं नामसत्यं नामलोक-णामाणि जाणि काणिचि सुहासुहाणि चन्द्रादिवन्नुषु ।। (प्राचा. सा. ५-२६) । ७. यथा बरिणामलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं। भक्तादिनाम देशाद्यपेक्षया सत्यं भवति तथा पनरप्य(मला. ७-४५)। निरपेक्षतयव संव्यवहाराथं कस्यचित्प्रयूक्तं संज्ञाकर्म लोक में जो कुछ भी शुभ-अशुभ नाम हैं उन्हें नाम- नामसत्यम् । यथा कश्चित्पुरुषो जिनदत्त इति । (गो. लोक जानना चाहिए। जी. म.प्र. व जी प्र. टी. २२३)। नामवर्गणा-वग्गणासहो णामवग्गणा । (घव. १जीव अथवा अजीव का जो 'सत्य' ऐसा नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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