Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 408
________________ " पिपासासहन] ७१०, जैन-लक्षणावली [पिहिता सनावसथस्यातिलवण-स्निग्ध-रूक्षविरुद्धाहार-गृष्मात- सत्यासत्यदोषाख्यानात् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, प-पित्तज्वरानशनादिभिरुदी) शरीरेन्द्रियोन्माथिनीं प. १६६)। पिपासां प्रत्यनाद्रियमाणप्रतिकारस्य पिपासानलशिखां दो या बहुत से व्यक्तियों के सत्य या असत्य दोषों धतिनवमृद्घटपूरितशीतलसुगन्धिसमाधिवारिणा प्रश- के कहने को पिशुन वचन कहते हैं। ऐसा वचन मयतः पिपासासहन प्रशस्यते । (स. सि. ६-६)। प्रीति को नष्ट करने वाला होता है। २. उदन्योदोरकहेतूपनिपाते तद्वशाप्राप्तिः पिपासा पिशुल-एदस्स सगलपक्खेवणंतिमभागस्स पिसूल सहनम् । (त. वा. ६,६३; त. श्लो. 8-६); इदि सण्णा होदि । (धव. पु. १२, पृ. १५८)। स्नानावगाहन-परिषेकत्यागिनः पतत्रिवदध्रुवासनाव- सकल प्रक्षेप के अनन्तवें भाग प्रमाण उसके एक सथस्यातिलवण-स्निग्ध-रूक्षविरुद्धाहार-युष्मातप-पित्त- खण्ड का नाम पिशल है। ज्वरानशनादिभिरुदीर्णा शरीरेन्द्रियोन्माथिनीं पिपासां पिशुलापिशुल-पुणो तेणेब (सव्वजीवरासिणा) प्रत्यनाद्रियमाणप्रतीकारमनसो निदाघे पटतपनकिरण भागहारेण एगपिसुले भागे हिदे एगं पिसुलापिसुलसन्तापिते अटव्यामासन्नेष्वपि हृदेष्वप्कायिकजीव मागच्छदि। (धव. पु. १२, पृ. १६०)। परिहारेच्छया जलमनाददानस्य सलिलसेकविवेक एक पिशुल में उसी सब जीवराशिरूप भागहार का म्लानां लतामिव ग्लानिमुपगतां गात्रयष्टिमवगणय्य भाग देने पर एक पिशुलापिशुल पाता है। तपःपरिपालनपरस्य भिक्षाकालेऽपीङ्गिताकारादिभिः योग्यमपि पानमचोदयतो धैर्यकुम्भावधारितशीलसु पिहित-१. सच्चित्तेण व पिहिदं अथवा अचित्तगन्धिप्रज्ञा-तोयेन विध्यापयतः तृष्णाग्निशिखां संयम गुरुगपिहिदं च । तं छंडिय जं देयं पिहिदं तं होदि परत्वं पिपासासहनमित्यवसीयते । (त. वा. 8,8, बोधव्वो ।। (मूला. ६-४७)। २. सचित्तपृथिव्या अपां हरितानां बीजानां त्रसानामपरि स्थापितं पीठ३, चा. सा. पृ. ४६)। ३. अतीवोत्पन्नपिपासां फलकादिकम् अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते सा प्रति प्रतिकारमकुर्वतो भिक्षाकालेडपींगिताकारादिभि पिहिता। (भ. प्रा. विजयो. २३०)। ३. तथा रपि योग्यमपि पानमप्रार्थयतो धैर्य-प्रज्ञाबलेन पिपासासहनम् । (प्रारा. सा. टी. ४०)। पिहितश्छादितः अप्रासुकेन प्रासुकेन च महता यदव१ जिसने स्नान व जलसिंचन प्रादि का परित्याग ष्टब्धमाहारादिकं तदावरणमुत्क्षिप्य दीयमानं यदि गृह्णाति तदा तस्य पिहितनामाशनदोषः । (मूला. वृ. कर दिया है तथा जिसके रहने का स्थान कोई। नियत नहीं है ऐसा साधु अत्यन्त खारे, चिकने व ६-०३)। ४. सचित्तन फलादिना स्थगितं पिहितम। (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। ५. सचित्तेनाब्जरूखे विपरीत भोजन से तथा ग्रीष्म ऋतु के पातप पत्रादिना वृतं पिहिताशनम। (प्राचा. सा. ५-४७)। एवं पित्तज्वर से उत्पन्न व शरीर और इन्द्रियों को पीडित करने वाली प्यास के प्रतीकार के लिए ६. पिहितं देयमप्रासु गुरु प्रास्वपनीय वा ।। (अन. घ. ५-२६)। ७. हरितकण्टक-सचित्तमृत्तिकापिधाउत्सुक न होकर जो उसे धैर्य के साथ सहता है, नम् प्राकृष्य दीयमाना पिहिता । (भ. प्रा. मला. यह उसका पिपासासहन प्रशंसनीय है। २३०)। ८. सचित्तेन पद्मपत्रादिना यत्पिहितं तदन्नं पिशाच-१. पिशाचाः सुरूपाः सौम्यदर्शना हस्त पिहितम् । (भा. प्रा. टी. 86)। ग्रीवासु मणि-रत्नविभूषणाः कदम्बवृक्षध्वजाः । (त. भा. ४-१२)। २. पिशाचा: स्वभावतः सुरूपाः १ सचित्त पत्ते आदि से अथवा किसी भारी प्रचित्त सौम्यदर्शना हस्त-ग्रीवासु मणि-रत्नमयविभूषणाः । (बृ. (प्रासुक) वस्तु से ढके हुए भोज्य पदार्थ के ऊपर से संग्रहणी मलय. वृ. ५८)। उसे हटाकर जो दिया जाता है उसमें पिहितदोष १ सुरूप, सौम्यदर्शन, हाथ और गले में मणियों व जानना चाहिए। २ सचित्त पृथिवी, जल, हरित, बीज रत्नों के आभूषणों के घारक तथा कदम्ब वृक्ष से अथवा त्रस जीवों के ऊपर शय्या के रूप में स्थापित चिह्नित ध्वजारों के धारण करने वाले व्यन्तर देवों प्रासन या पाटे आदि के देने पर पिहितदोष होता को पिशाच कहते हैं। पिशुन-पिशुनं प्रीतिविच्छेदकारि द्वयोर्बहूनां वा पिहिता--सचित्तमृत्तिकापिधानमपाकृष्य या (वस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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