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पौषधोपवास] ७३०, जैन-लक्षणावली
[पोष्णकाल भी वह किया जा प्रकता है, पर पर्वतिथियों में उसे हैं । उक्त पर्व दिनों में उपवास करना, इसे पोषधोअवश्य करना चाहिए। उपवास के समय सावद्य- पवास या पौषधोपवास कहा जाता है। कर्म के साथ स्नान प्रादि रूप संस्कार आदि का
पौष्णकाल-जन्म-ऋक्षगते चन्द्रे समसप्तगते रवी। परित्याग करना चाहिए, तथा कांस अथवा पटियों प्रादि को बिछा कर कायोत्सर्ग से प्रथवा वीरासन
पौष्णनामा भवेत्कालो मृत्युनिर्णयकारणम् । (योगआदि से स्थित होकर धर्मजागरण करना चाहिए।
शा. ५-८७)। २. पौषध शब्द पर्व के अर्थ में रूह है, अष्टमी आदि जन्मनक्षत्र में चन्द्रमा के प्राप्त होने पर तथा सूर्य (चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावश्या) तिथियों को के सम सातवें में प्राप्त होने पर पौष्ण नामक काल पर्व माना जाता है, क्योंकि वे धर्मोपचय के कारण होता है, यह मत्यु का निश्चायक है।
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