Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ पर्यायच्छेद] ६६२, जैन-लक्षणावली पिर्यायलोक चरः। (प्रमाल. ३९५)। २२. गुणविकाराः पर्या- स्वो. वृ. ७)। ३. तत्र पर्यायो लब्ध्यपर्याप्तसूक्ष्मयाः। (नयप्र. पृ. ६८); पर्येति उत्पादमुत्पत्ति निगोतस्य प्रथमसमयजातस्य प्रवृत्तं सर्वजघन्यं ज्ञानम्, विपत्ति च प्राप्नोतीति पर्यायः । xxx क्रम- तद्धि लब्ध्यक्षराभिधानमक्षरश्रुतानन्तपरिमाणत्वात् भाविनः पर्यायास्त्वात्मनः यथा सुख-दुःख-शोक- सर्वज्ञानेभ्यो जघन्यं नित्योद्घाटं निरावरणं च । न हर्षादयः । (नयप्र. पु. ६६)। २३. क्रमभावी अया- हि तावतस्तस्य कदाचनाप्यभावो भवत्यात्मनोऽप्यवद्रव्यभावी पर्यायः । xxx पर्यायः क्रमभावी। भावप्रसङ्गादुपयोगलक्षणत्वात्तस्य । (अन. ध. (द्रव्यानु. त. पृ. १२)। १ इन्दन व शकनादि क्रियारूप भावान्तरों तथा १ केवलज्ञान के समान निरावरण और अविनश्वर इन्द्र व शक्र प्रादि संज्ञान्तरों को पर्याय कहा जाता ऐसे सूक्ष्म निगोदजीव के लब्ध्यक्षररूप सर्वजघन्य है। २ उपात्तहेतुक--द्रव्य-क्षेत्रादि के निमित्त से मतिज्ञान से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है यह भी होने वाले प्रौदयिकादि भाव-तथा अनुपात्तहेतुक- उक्त मतिज्ञान के समान पर्यायज्ञान कहलाता है। स्वाभाविक चैतन्य प्रादि-जो धर्म एक साथ रहने २ पर्याय, ज्ञान का अंश और अविभागप्रतिच्छेद ये में विरोधी भी हैं व अविरोधी भी हैं, उनकी विव- समानार्थक हैं। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव के क्षित व्यवहार की विषयभूत-व्यवहार, ऋजुसूत्र, जो सबसे जघन्य श्रुतज्ञान मात्र होता है उसकी शब्द, समभिरूद और एवंभूत इन नया स्वरूप- अपेक्षा दूसरे जीव में जो एक अविभागप्रतिच्छेदरूप अवस्थाविशेष को पर्याय कहते हैं । श्रुतज्ञान का अंश होता है उसे पर्यायज्ञान कहा पर्यायच्छेद–तवभूमिमदिक्कतो मूलट्ठाणं च जो ण जाता है । संपत्तो । से परियायच्छेदो पायच्छित्तं समुद्दिळं ॥ पर्यायज्ञानावरणीय-पज्जयसण्णिदरस णाणस्स (छेदपिण्ढ २४३)। जमावरणं तं पज्जयणाणावरणीयं । (धव. पु. १३, तपोभूमि को छोड़ता हुआ जो मूल स्थान को पृ. २७७)। पाप्त नहीं होता है-पुनः दीक्षा को नहीं ग्रहण १ जो कर्म पर्याय नामक ज्ञान को आच्छादित करता कर लेता है-उसको पर्यायच्छेद प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है उसे पर्यायज्ञानावरणीय कहते हैं। किया गया है। पर्यायलोक-१. दव्वगुण-खेत्तपज्जय भावाणुभावो पर्यायज्ञान-१. खरणाभावा अक्खरं केवलणाणं, य भावपरिणामो। जाण चउब्विहमेयं पज्जयलोगं तस्स अणंतिमभागो पज्जाओ णाम मदिणाणं । तं समासेण ।। (मूला. ७-५४) । २. दव्वगुणखित्तनवलणाणं व निरावरणमक्खरं च। एदम्हादो पज्जवभवाणुभावे अभावपरिणामे । जाण चउब्विसुहमणिगोदलद्धिअक्खरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं हमेअं पज्जवलोगं समासेण ॥ वन्न-रस-गंध-संठाणपि पज्जाओ उच्चदि । (धव. पु. ६, पृ. २१-२२); फास-ठाण-गइ-वन्नभेए अ। परिणामे ए बहुविहे पज्जलद्धिअक्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे लद्धं सव्व- वलोगं विप्राणाहि। (आव. भा. २०२-३, पृ. जीवरासीदो अणंतगुणं णाणाविभागपडिच्छेदेहि ४६६ हरि. व.)। दोदि। एदम्हि पक्खेवे लद्धिअक्खरम्हि पडिरासि- १ द्रव्यगुण, क्षेत्रपर्याय, भावानुभाव (भवानुभाव) दम्हि पक्खित्ते पज्जयणाणपमाणमुप्पज्जदि । (धव. और भावपरिणाम; इस प्रकार से पर्यायलोक प. १३. पृ. २६३) । २. पर्यायो ज्ञानस्यांशोऽविभा- संक्षेप में चार प्रकार का है। इनमें ज्ञान-दर्शन प्रादि गपलिच्छेद इत्यनर्थान्तरम्, (कर्मवि. 'शो विभागः तथा कृष्ण-नीलादि द्रव्यगुण अनेक हैं, सातवीं पलिच्छेद इति पर्यायः') तत्रैको ज्ञानांशः पर्यायः, पृथिवी के प्रदेश व पूर्वापर विदेहादि को क्षेत्र अनेके त ज्ञानांशाः पर्यायसमासः । एतदुक्तं भवति- पर्याय जानना चाहिए, प्रायु के जघन्य, मध्यम और लब्ध्यपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत्सर्वजधन्यं उत्कृष्ट विकल्परूप भवानुभव है; जो भाव (परिश्रतज्ञानमात्र तस्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकः श्रुत- णाम) कर्म के उपार्जन व उसकी निर्जरा का ज्ञानांशोऽविभागपलिच्छेदरूपो वर्तते स पर्यायः । कारण होता है उसे भावपरिणाम कहा गया है। (शतक. मल. हेम. व. ३८, पृ. ४२; कर्मवि. दे. २ द्रव्य के गुणों-जैसे रूपादि, क्षेत्र की पर्यायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452