Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 357
________________ पद] ६५६, जैन-लक्षणावली [पदश्रुतज्ञान परिणाम में हित करने वाले वचनों को पथ्य वचन निश्चय करने को पदनिक्षेप कहते हैं। कहते हैं। पदबद्ध-गेयपदैर्बद्धम्-विशिष्टविरचनया रचितं पद-१. सुम्मिङन्तं पदम् । (जैनेन्द्र. ११२।१०३)। पदबद्धम् । (अनुयो. मल. हेम. वृ. गा. ४६, पृ. २. पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम् । (धव. पु. १३२)। १०, पृ. १९) । ३. वर्णसमुदायः पदम् । (त. भा. गाने के योग्य पदों के द्वारा जो विशिष्ट रचना की सिद्ध. वृ. ५-२४)। ४. वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां जाती है उसे पदबद्ध कहा जाता है। निरपेक्षः समुदायः पदम् । (न्यायकु. ६५, पृ. पदमीमांसा--एदेसि पदाणं (उक्कस्साणुक्कस्सादि७३७) । ५. पद्यते गम्यते येनार्थः तत्पदम् । (सिद्धि- तेरसपदाणं) मीमांसा परिक्खा जत्थ कीरदि सा वि. वृ. ११-५, पृ. ७०३, पं. १२) । ६. वर्णानाम- पदमीमांसा। (धव. पु. १०, पृ. १६); पदाणं न्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहिति: पदम् । (प्र. मीमांसा परिक्खा गवसणा पदमीमांसा। (धव. पु. न. त. ४-१०); पद्यते गम्यते स्वयोग्योऽर्थोऽनेनेति पदम् । (स्या. र. ४-१०) । ७. स्वार्थप्रति- उत्कृष्ट, अनत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रादि पदों पादकानि पदानि । (उपदे. प. मु. वृ. ८-५६)। का जिस अनुयोगद्वार में विचार किया जाता है ८. पद त्वथपारसमाप्तिः पदामत्याधुाक्तसद्भाव- उसका नाम पदमीमांसा है। ऽपि येन केनचिद् पदेनाष्टादशपदसहस्रादिप्रमाणा पदविग्रह-१. "पायं पदविच्छेदो समास विसयो आचारादिग्रन्था गीयन्ते तदिह गृह्यते, तस्यैव द्वा तयत्थणियमत्थं । पदविग्गहोत्ति भण्णइ सो सुद्धपदं दशाङ्गश्रुतपरिमाणेऽधिकृतत्वाच्छ तभेदानामेव चेह ण संभवदि ॥" इह प्रायेण यः समासविषयः पदयोः प्रस्तुतत्वात्तस्य च पदस्य तथाबिधाम्नायाभावात् पदानां वा छेदो अनेकार्थसम्भवे इष्टार्थ नियमनाय प्रमाणं न ज्ञायते, तत्रैकं पदं पदमुच्यते । (शतक. क्रियते स पदविग्रहः । (उत्तरा. चू. पृ. १४) । मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ४२, कर्मवि. दे. स्वो. वृ. २. पदपृथक्करणं पदविग्रहः । (प्राव. नि. मलय. व. ७, प. १६)। ६. बर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्ष: १०२७, पृ. ५५६)। समुदायः पदम् अव्ययानव्ययभेदभिन्नम्। (लघीय. १ अनेक अर्थों की सम्भावना होने पर अभीष्ट अर्थ अभय. वृ. ६४, पृ. ८७)। १०. Xxx तत्पदं के नियमन के लिए जो प्रायः समासविषयक दो या यत्र नापदः । (जम्बू. च. ४-१५१) । दो से अधिक पदों का छेद किया जाता है वह १ सुबन्त (सु-औ-जस् आदि विभक्तिप्रत्ययान्त) पदविग्रह कहलाता है। और मिङन्त (मिप्-वस्-मस् प्रादि झि तक) शब्द पदविभागी आलोचना-पव्वज्जादी सव्वं कमेण को पद कहते हैं। ३ वर्गों के समुदाय को पद कहा जं जत्थ जेण भावेण । पडिसेविदं तहा तं पालोजाता है। ८ अर्थसमाप्ति को यद्यपि पद कहा चितो पदविभागी॥ (भ. प्रा. ५३५)। जाता है, फिर भी जिस पद से अठारह हजार प्रादि पद प्रमाण प्राचारादि ग्रन्थ कहे गये हैं प्रवृज्या लेने के समय से लेकर आज तक जिसका उसको यहां श्रुत के अधिकार में पद ग्रहण करना जहां पर जिस भाव से सेवन किया गया है उसकी चाहिए। ६ पद (स्थान) वही उत्तम माना जाता उसी भाव से क्रमशः पालोचना करने को पवि. है जो आपदाओं से रहित हो-ऐसा पद एक मात्र भागी आलोचना कहते हैं। मोक्ष ही सम्भव है। पदश्रुतज्ञान-१. तदो (अक्खरसमासादो) एगपदनिक्षेप-जहण्णक्कस्सपदविसयणिच्छए खिवदि क्खरणाणे वड्ढिदे पदं णाम सूदणाणं होदि। (धव. पादेदिति पदणिक्खेवो णाम । भुजगारविसेसो पद- पु. ६, पृ. २३); एगेगक्खरवढिकमेण अक्खरणिक्खेवो, जहण्णुक्कस्सड्ढि-हाणिपरूवणादो । समासं सुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव संखेज्ज(जयध.-कसायपा. सु. पृ. ७६ का टिप्पण)। वखराणि वड्ढिदाणि त्ति । पुणो संखेज्जक्खराणि समत्कीर्तना और स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारों का घेत्तूण एगं पदसुदणाणं होदि। (धव. पु. १३, पृ. जघन्य और उत्कृष्ट पदों के द्वारा निक्षेप अर्थात् २६५) । २. एगवनगद उपरि गगेगेणकपण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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