Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ निःशङ्का ६३७, जैन-लक्षणांवली [निःश्वसित (चा. सा. पृ. २)। ६. विरागिणा सर्वपदार्थवेदिना इति जिनमतं तथेति वा निःशंकितत्वम् । (भाव. जिनेशिन ते कथिता न वेति यः। करोति शङ्कां न प्रा. टी. ७७)। १६. अहंदुपदिष्टद्वादशांगप्रवचनकदापि मानसे निःशङ्कितोऽसौ गदितो महामनाः ॥ गहने एकाक्षरं पदं वा किमिदं स्यादुवाच (?) वेति (अमित. श्रा. ३-७३)। १०. कि जीवदया धम्मो शंकानिरासः जिनवचनं जैन दर्शनं च सत्यमिति जपणे हिंसा वि होदि कि धम्मो। इच्चेवमादिसंका निःशंकितत्वनामा गुणः। (कातिके. टी. ३२६) । तदकरणं जाण णिस्संका ॥ दयभावो वि य धम्मो २०. शंका भी: साध्वसं भीतिर्भयमेकाभिधा अमी। हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो। इदि संदेहाभावो तस्या निष्क्रान्तितो जातो भावो निःशकितोऽर्थतः ।। णिस्तका णिम्मला होदि ।। (कातिके. ४१४-१५)। (लाटीसं. ४-५, पंचाध्या. २-४८१) । ११. निश्चयेन पुन: व्यवहारनिःशङ्कागुणस्य सह- १ जो सम्यग्दृष्टि जीव इहलोकभय व परलोकभय कारित्वेनेहलोकात्राणागुप्ति-मरण-व्याधि-वेदनाऽऽक- प्रादि सात प्रकार के भय से रहित हो चुके हैं वे स्मिकाभिधान भय सप्तकं मुक्त्वा घोरोपसर्ग-परीषह- नि:शंक-निःशंकित अंग के धारक-होते हैं। ये प्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावेनैव नि:शंक सम्यग्दृष्टि कर्मबन्ध के कारणभूत होकर नि:शङ्कगुणो ज्ञातव्यः। (ब. द्रव्यसं. टी. ४१, पृ. प्रात्मभेद के उत्पन्न करने में मोह के जनक व १४९)। १२. शंका निश्चयाभावः शुद्धपरिणामा- बाधा पहुंचाने वाले ऐसे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय च्चलनम्, शंकाया निर्गतो निःशंकस्तस्य भावो और योगरूप चारों पायों के छेदनेवाले हैं। निःशंकता तत्त्वरुची शुद्धपरिणामः । (मूला. व. ५ जिनागम के विषय में जिसको देशशंका और ५-४) । १३. हेतुद्वयोत्थकार्यानुमेयेयं भवितव्यता। सर्वशंका दोनों प्रकार की शंका नष्ट हो चुकी है दुलंध्येति भयाऽभावो निःशकत्वं भयोदये ॥ भय- तथा जिसे 'जिनदेव ने जो कहा है वही सत्य है माकस्मिक पारलौकिकं चहलौकिकम् । मृत्यु-गुप्ति- ऐसी दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई है उसे ही निःशंक कहा रुजात्राण: संजातमिति सप्तधा ।। किं स्यात्सत्यमिदं जाता है। नो वेत्याप्तोक्ते संशयोज्झिता। मतिस्तत्त्वाचल- निःशंकित-देखो निःशंक। प्रीतिः परा निःशंकिता मता ॥ (प्राचा. सा. ३, निःशेषवाचनाविनय-तथा नि:शेषम्, किमुक्तं ५२-५४) । १४. णिस्संको-जो णिस्संकितो भवति? यावत्समाप्तं भवति तावद्वाचयति, एष नि:सेवइ। (जीतक. च. १, पृ. ३)। १५. निर्गतं शेषवाचनाविनयः । (व्यव. भा. १०-३१४)। शकितं यस्मादसौ निःशंकित:, देश-सर्वशंकारहित- विवक्षित प्रागम के समाप्त होने तक उसके वाचन मित्यर्थः। (व्यव. भा. मलय. ५. १-६४); को निःशेषवाचनाविनय कहते हैं। यह श्रुतविनय निःशङ्को निर्द[भ]य इह-परलोकशङ्कारहित के चार (सूत्र, अर्थ, हित व निःशेष) भेदों में इत्यर्थः। (व्यव. भा. मलय. व. १०-६३४)। अन्तिम है। १६. इदमेवेदृशं तत्त्वं जिनोक्तं तच्च मान्यथा। निःश्रेयस-१. जन्म-जरामय-मरणः शोक खंभयैइत्यकम्पा रुचिर्यासो निःशंकांगं तदुच्यते ।। (भाव- श्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते सं. वाम. ४१०)। १७. इहलोकभयं परलोकभयं नित्यम् ।। (रत्नक, १३१)। २. केवलज्ञान कल्याणं पुरुषाद्यरक्षणमत्राणभयं प्रात्मरक्षोपायदुर्गाद्यभावाद- निर्वाण कल्याण मनन्तचतुष्टयं परमनिर्वाणपदं च गुप्तिभयं मरण भयं वेदनाभयं विद्युत्पाताद्याकस्मिक- निःश्रेयमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२६)। भयमिति सप्तभयरहितत्वं जैन दर्शनं सत्यमिति च १ जन्म, जरा, रोग, मरण, शोक, दुःख और भय निःशंकितत्वमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४)। से रहित तथा शुद्ध (निर्बाध) सुख से युक्त निर्वाण १८. इहलोकभय-परलोकभय-वेदनाभय-मरणभय- (मोक्ष) को निःश्रेयस कहा जाता है। प्रात्मरक्षोपायदुर्गाद्यभावागुप्तिभय-अत्राणभयारक्षण- निःश्वसित-अघः श्वसितं निःश्वसितम् । (प्राव. भय-विद्युत्पाताद्याकस्मिकभय इति सप्तभयरहितत्वं नि. हरि. व. १४९८, पृ. ७७८, योगशा. स्वो. निःशंकितत्वं निर्ग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्ग इति जिनमतं विव. ३-१२४) । तयेति बा निःशंकितत्वं निर्ग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्ग नीचे सांस लेने को नि:श्वसित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452