Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 377
________________ परिचितसूत्रता] ६७६, जैन-लक्षणावली [परिणाम जिस जिस विषय में प्रश्न किया जाता है उस उस ५-४१) । ४. द्रव्यात्मलाभमानहेतुकः परिणामः । विषय से सम्बद्ध भावागमरूप समुद्र में मछली के यस्य भावस्य द्रव्यात्मलाभमात्रमेव हेतुर्भवति नान्यसमान जिसकी चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति शीघ्रतापूर्वक निमित्तमस्ति स परिणाम इति परिभाष्यते । (त. क्रन से, अक्रम से या अनुभयरूप से हुया करती है वा. २, १, ५); द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगउस जीव को और भावागम को भी परिचित कहा विस्रसालक्षणो विकारः परिणामः। द्रव्यस्य चेतनजाता है। यह प्रागम के नौ प्रधिकारों में स्येतररय वा द्रव्यापिकवल अविवक्षातो न्यग्भूतां तीसरा है। स्वां द्रव्यजातिमजहतः पर्यायाथिकनयार्पणात् प्राधान्यं परिचितसूत्रता-परिचितसूत्रता उत्क्रम-क्रमवाच- विभ्रता केनचित् पर्यायेण प्रादुर्भावः पूर्वपर्याय निवृनादिभिः स्थिरसूत्रता । (उत्ता. नि. शा. वृ. ५८, तिपूर्वको विकारः प्रयोग-विस्रसालक्षणः परिणाम इति प्रतिपत्तव्यः । (त. वा. ५, २२, १०); धर्माअक्रम या क्रम से प्रवृत्त वाचनादि से सूत्र में दीनां येनात्मना भवनं स तद्भावः परिणामः। स्थिरता का रहना, इसका नाम स्थिरसूत्रता है। धर्मादी नि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावः, यह चार प्रकार की श्रुत-सम्पत् में से एक है। तत्त्वं परिणाम इत्याख्यायते । (त. वा. ५, ४२, १)। परिजित—देखो परिचित। अइतुरियाए गईए ५. परिणामः अध्यवसाय विशेषः । (प्राव. नि. हरि. पडिक्खलणेण विणा आइद्धकुलालचक्क व सगविसए वृ. ८२३); परिः समन्तानमनं परिणामः सुदीर्घपरिब्भमणक्खमो कदिअणियोगो परिजिदं णाम। कालपूर्वापरार्थविलोकनादिजन्य आत्मधर्म इत्यर्थः । (धव. पु. ६, पृ. २६८)। (प्राव. नि. हरि. वृ. ६३८)। ६. परिणमनं परिअतिशय शीघ्रगति से स्खलन के बिना जो कुम्हार णामः अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनमिति के द्वारा प्रेरित चाक के समान अपने विषय में भावार्थः । उक्तं च-परिणामो ह्यन्तिरगमनं न तु शीघ्र परिभ्रमण में समर्थ कृतिअनुयोग (विवक्षित सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणाअनुयोग) है उसका नाम परिजित है। मस्तद्विदामिष्ट: ।। (अनुयो. हरि. व. उद्. पू. परिज्ञा–परिः समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परि- ६४)। ७. को परिणामो? मिच्छत्तासंजम-कसाज्ञासामायिकमिति । (आव. हरि. वृ. पृ. ८३४)। यादी। (धव. पु. १५, पृ. १७२) । ८. द्रव्यस्य स्वपरि अर्थात सब अोर से पाप के परित्याग स्वरूप जात्यपरित्यागेन परिस्पन्देतरप्रयोगजपर्यायस्वभावः से जो ज्ञान होता है उसका नाम परिज्ञासामा- परिणामः । तद्यथा-अङ्कुरावस्थस्य वनस्पतेर्मूलयिक है। काण्ड-त्वक्-पत्र-स्कन्ध-शाखा-विटप-पुष्प-फलसद्भा - परिज्ञातकर्म मुनि-जस्सेते लोगंसि कम्म-समा- वलक्षणः परिणामः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२२); रम्भा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिन्नायकम्मेत्ति अथवा कैश्चित् परिणामलक्षणमुक्तम्---अवस्थितस्य वेमि । (प्राचारा. सू. १, १, १, १३, पृ. २५)। द्रव्यस्य धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरप्रादुर्भावश्च परिजिस मुमुक्षु मुनि के कर्मसमारम्भ--क्रियाविशेष णामः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-४१)। ६. स्वजातेअथवा ज्ञानावरणादि पाठ प्रकार के कर्म के उपा- रविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः । परिणामः स दानहेतु-बन्ध के हेतुरूप से ज्ञात है वह परिज्ञात- निर्दिष्टोऽपरिस्पन्दात्मको जिनैः ।। (त. सा. ३, क मुनि कहलाता है। मुनि का निरुक्तार्थ है ४६)। १०. द्रव्यात्मलाभहेतुकः परिणामः । (पंचा. जगत की त्रैकालिक अवस्था का जानने वाला। का. अमत. व. ५६) । ११. परीति सर्वप्रकारं नमनं परिणाम-१. तद्भावः परिणामः । (त. सू. ५, जीवानामजीबानां च जीवत्वादिस्वरूपानुभवनं प्रति ४१) । २. द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुकः परिणामः । (स. प्रवीभवनं परिणामः । (उत्तरा. नि. शा. व. ४८, सि. २-१); धर्मदीनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स प. ३३; षडशी. दे. स्वो. वृ. ६४) । १२. परितभावस्तत्त्वं परिणाम इति आख्यायते । (स. सि. णामः अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम् । ( स्थाना. ५-४२)। ३. धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च अभय.व. ४, १, २६५) । १३. परिणाम:-अवस्थागुणानां स्वभावः स्वतत्त्वं परिणामः । (त. भा. तोऽवस्थान्तरगमनानि । (समवा. अभय. वृ. १४०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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