Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 406
________________ पाष्णिग्राह ] ७०८, २. तथा पर्षदि साधवः पार्षद्याः, "पर्षदो ण्यणौ " इति ण्य-प्रत्ययः, ते च वयस्यस्थानीयाः मित्रसदृशा देवराजानामिति भावः । (बृहत्सं. मलय. वृ. २) । ३. पर्षदि साधवः पार्षद्याः, देवराजानां मित्रप्रायाः । ( संग्रहणी दे. वृ. १ ) । १ मित्र के समान जो देव होते हैं वे पार्षद्य कहलाते हैं। पाणिग्राह-यो विजिगीषौ प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात्कोपं जनयति स पाष्णिग्राहः । ( नीतिवा. २८- २६, पृ. ३१६) । कहा जो विजिगीषु के प्रस्थान कर चुकने पर अथवा प्रस्थान के समय पीछे क्रोध को उत्पन्न करता है। १ पाश और बन्धन ये समानार्थक शब्द हैं, बन्धन के हेतु - मिथ्यादर्शनादिकों को- पाश जाता है, इस प्रकार के पाश में जो स्थित है उसे पाशस्थ कहते हैं । पाषण्डस्थापनानाम- १. समणे य पंडुरंगे भिक्खू कावा लिए अ तावसए । परिवायगे, से तं पाखंडनामे ॥ ( अनुयो. सू. १३०, पृ. १४६ ) । २. इह येन यत् पाषण्डमाश्रितं तस्य तन्नाम स्थाप्यमानं पाषण्डस्थापनानामाभिधीयते । (अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. १३०, पृ. १४६) । २ श्रमण (निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गेरुक और अाजीव ये पांच) पांडुरंग, भिक्षु, कापालिक, तापस और परिव्राजक; इनमें से जिसने जिस पाषण्ड का आश्रय लिया है उसके स्थापित किये जाने वाले उस नाम को पाषण्डस्थापना नाम कहा जाता है । पाषण्डिमूढता - देखो पाखण्डिमूढता । पांशु - पांशवो नाम धूमाकारमापाण्डुरमचित्तं रजः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ७ - २८२ ) । धुएं के आकार वाली कुछ सफेद अचित्त धूलि का नाम पांशु है । पिङ्गलनिधि- देखो पाण्डु । १. सव्वा श्राभरणविही पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं । प्रसाण य हत्थीण य पिंगलगणिहिंमि सा भणिया । ( जम्बूद्वी. ६६, पृ. २५६ ) २. नराणामथ नारीणां हस्तिनां वाजिनामपि । सर्वोऽप्याभरणविधिनिधेर्भवति पिंगलात् ॥ ( त्रि.श. पु. च. १, ४, ५७६ ) । १ पुरुषों, स्त्रियों, घोड़ों और हाथियों के श्राभारणों की जो सब विधि है वह पिंगलनिधि में कही गई है । पिच्छ — पिच्छः परिहारः, यतः परिहारप्रायश्चित्तं विदधानः अहं परिहारप्रायश्चित्तीति ज्ञापननिमित्त जैन - लक्षणावली उसे पाणिग्राह कहते हैं । पालित - पालितं चैव - पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागर न रक्षितम् । ( आव. नि. हरि. वृ. १५६३, पृ. ८५१) । बार-बार के उपयोग और जागरूकता से सुरक्षित वस्तु को पालित कहते हैं । पालिभेद, पालीभेद - संजममहातलागस्स णाणवेरग्गसुपडिपुण्णस्स । सुद्धपरिणामजुत्तो तस्स उ इक्कमो पाली || संजमभिमुहस्स वि विसुद्ध - परिणामभावजुत्तस्स । विकहादिसमुप्पण्णो तस्स उ भेदो मुणेयव्व ॥ श्रहवा पालयतीति उवस्तयं तेण होति सा पाली । तीसे जायति भेदो अप्पाण-परोभयसमुत्थो ।। (बृहत्क. ३७०४-६) । शुद्ध परिणाम से युक्त साधु ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण संयमरूप महासरोवर का जो उल्लंघन नहीं करता है, इसका नाम पालि । संयम के श्रभिमुख होते हुए भी साध्वी के उपाश्रय में जाने पर विकथा आदि के कारण उक्त पालि का भेद (विनाश ) होता है । अथवा 'पालयतीति पाली' इस निरुक्ति के अनुसार उपाय का रक्षण करने वाली साध्वी को पाली कहा जाता है। संयत को देखकर उस अकेली का अपने द्वारा, पर के ( जाने वाले साधु के) द्वारा अथवा दोनों के द्वारा भेद ( विभाग ) होता है । यह उपाश्रय में जाने का दोष है । पाशमुद्रा - अंगुष्ठं तर्जनी संयोज्य शेषाङ्गुलीप्रसारणेन पाशमुद्रा । परस्परोन्मुखी मणिबन्धाभिमुखकरशाखौ करौ कृत्वा ततो दक्षिणाङ्गुष्ठ-कनिष्ठिकाभ्यां वाममध्यमानामिके तर्जनीं च तथा वामाङ्गुष्ठ-कनिष्ठिकाभ्यामितरस्य मध्यमानामिके तर्जनीं समाक्रम Jain Education International [पिच्छ येदिति पाशमुद्रा । ( निर्वाणक. पृ. ३२) । दोनों हाथों की तर्जनी और अंगूठों को मिलाकर शेष अंगुलियों के पसारने को पाशमृद्रा कहते हैं । पाशस्थ - १. पासोत्ति बंधणंति य एगट्ठ बंधहेयवो पासा । पासत्थिश्रो पासत्थो XX X ॥ ( व्यव भा. १ - २२६, पृ. १११) । २. मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवस्ते पाशा इव पाशास्तेषु स्थितः पाशस्थ: । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-२२६, पु. १११) । ३. मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवः पाशाः, पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्थ: । ( सम्बोधस. वृ. ६, पृ. १० ) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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