Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 398
________________ पात्रदत्ति] ७००, जैन-लक्षणावली [पादपतन (पद्मपु. १४, ५३-५८) । ४. पात्रं रागादिभिर्दोषैर- संयमोपकरणादिदानं च । (चा. सा. पृ. २१)। स्पृष्टो गुणवान् भवेत् । तच्च त्रेधा जधन्यादिभेदैर्भेद- १ महान् तपस्वी मुनि जनों के लिए पूजा व प्रतिग्रह मुपेयिवत् ।। (म. पु. २०-१३६) । ५. पूजायाम- के साथ भोजन आदि के देने को पात्रदान कहा वसाने सौख्ये दुःखे समागमे विगमे । क्षुभ्यति यस्य जाता है। न चेतः पात्रमसावुत्तमं साधुः ॥ (अमित. श्रा. १०, पात्रविशेष-१. मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशे२३)। ६. पात्रमिव पात्रमतिशयवद्ज्ञानादिगुण- षः । (स. सि. ७-३९; त. श्लो. ७-३६; चा. सा. रत्नानां प्राप्तो वा गुणप्रकर्षमिति गम्यते ॥ (स्थानां. पृ. १५)। २. पात्रविशेषः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रअभय. वृ. १-३७) । ७. यत्तारयति जन्माब्धेः स्वा- तपःसम्पन्नता इति । (त. भा. ७-३४) । ३. मोक्षश्रितान् यानपात्रवत् । मुक्त्यर्थगुणसंयोगभेदात् पात्रं कारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः। मोक्षकारणैः सम्यग्दविधा मतम् ॥ (सा. ध. ५-४३)। र्शनादिभिः योगः पात्रविशेष इति प्रतीयते। (त. १ जो ज्ञान व संयम में लीन हैं, जिनकी दष्टि दूसरी वा. ७, ३६, ५)। ओर नहीं है जो एक मात्र प्रात्मा की ओर दृष्टि १ मोक्ष के कारणभूत गुणों के संयोग को पात्रविदेते हैं, जितेन्द्रिय हैं, और धीर हैं। ऐसे लोक में जो शेष-पात्र की विशेषता-मानी जाती है। सर्वश्रेष्ठ श्रमण (साधु) हैं वे पात्र माने गये हैं। २ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप से सम्पन्न जो सुख-दुःख, मान-अपमान और लाभ-अलाभ में होना; यह पात्र की विशेषता है। सम-राग-द्वेष से रहित--हैं वे पात्र कहे गये हैं। पाद-१. हि अंगुले हि वादो XxxI (ति. पात्रदत्ति—देखो पात्रदान । १. तपःश्रुतोपयोगीनि प.१-११४; जं. दी. प. १३-३२)। २. एएणं परवद्यानि भक्तितः । मुनिभ्यो ऽन्नौषधावास-पुस्त- अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पानो। (अनुयो. सू. कादीनि कल्पयेत् ॥ आर्यिकाः श्राविकाश्चापि सत्- १३३, पृ. १५७)। ३. xxx छच्च 'अंगुला कुर्याद् गुणभूषणाः । चतुर्विधेऽपि संघे यत् फलमुप्त- पायो । (जीवस. ६६; ज्योतिष्क. ७५)। ४. छ अनल्पशः ॥ धर्मार्थ-कामसध्रीची यथौचित्यमुपाचरन् । अंगुलाणि पादो। (व्याख्याप्र. ६, ७, ५, पृ. ८२६)। सुधीस्त्रिवर्गसम्पत्त्या प्रेत्य चेह च मोदते ।। (सा. घ. ५. तत्र षडगुलः पादः । (त. वा. ३, ३८, ६)। ६६ व ७३-७४) । २. महातपोधनेभ्यः प्रति- ६. विविधांगुलषट्क: स्यात् पादः Xxx। (ह. ग्रहार्चनादिपूर्वकं निरवद्याहारदानं ज्ञान-संयमोपक- पु. ७-४५) । ७. Xxx छंगुलु पाउ । (म. पु. रणादिदानं च पात्रदत्तिः। (कातिके. टी. ३९१)। पुष्प. २-७, पृ. २४) । ८. अंगुलछक्कं पायो'x १ जो निर्दोष आहार, औषध, प्रावास और पुस्तक XX । (संग्रहणी २४७) । ६. पादः स्यादङ्गुलैः प्रादि तपश्चरण व श्रुतके अभ्यासमें उपयोगी हैं उनका षड्भिः Xxx। (लोकप्र. १-५६)। १०. भक्तिपूर्वक मुनियों के लिए देना; यह पात्रदत्ति या षड्भिरङ्गुलैः पाद उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३, पात्रदान कहलाता है। साथ ही प्रायिकाओं, श्रावि- ३८)। काओं एवं त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम) में सहायकों १ छह अंगुल का एक पाद होता है । ६ उत्सेधांगुल (कार्यपात्रों) का भी यथायोग्य प्रादर-सत्कार प्रमाणांगुल और प्रात्मांगुल इन तीन प्रकार के करना: यह भी पात्रदत्ति के अन्तर्गत है। २ महा- अंगुलों के प्राश्रय से पृथक् पृथक् छह अंगुल प्रमाण तपस्वियों को प्रतिग्रह (पडिगाहन) और पूजा के उन उन नामों वाला एक पाद होता है। साथ निर्दोष पाहार तथा ज्ञान एवं संयम के उप- पावग्रहण-पादेन ग्रहणे पादग्रहणं xxx। करणों-शास्त्र व पीछी आदि के देने का नाम (अन. ध. ५-५८)। पात्रदत्ति है। भूमि से पांव के द्वारा रत्न-सुवर्णादि के ग्रहण करने पात्रदान—देखो पात्रदत्ति । १. महातपोधनायार्चा- पर पादग्रहण नामक भोजन का अन्तराय होता है। प्रतिग्रहपुरस्सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदि- पादपतन-पादपतनं प्रणामादिगौरवम् । (प्रश्नष्यते । (म. पु. ३८-३७) । २. पात्रदत्तिर्महातपो- व्या. अभय. वृ., पृ. १६३) । धनेभ्यः प्रतिग्रहार्चनादिपूर्वकं निरवद्याहारदानं ज्ञान- चरणों में गिरकर नमस्कारादि करने को पादपतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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